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श्रद्धा, विश्वास, अंधविश्वास व पाखंड

श्रद्धा, विश्वास, अंधविश्वास व पाखंड  मानवीय मनोविज्ञान ऐसा है कि किसी के विचार, परम्परा, ग्रंथ व कर्म में श्रद्धा रखता ही है। इसे जिसपर पर आस्था है वह उसे मानता है और आदर भी देता है। उसे उससे दैवीय आध्यात्मिक अनुभूति भी होती है। वह जिसे अपना आराध्य मानता है उसे अंतिम सत्य भी मानने लगता है। इसमें कोई बुराई नहीं हर किसी को अपनी श्रद्धा के अनुसार जीवन यापन करने का संवैधानिक अधिकार भी प्राप्त है। वह देश के किसी कानून का भी उल्लंघन नहीं कर रहा होता,बस अपनी श्रद्धा को और प्रागाढ़ बनाने का प्रयास करता है। मान लो एक साधक या भक्त मंदिर जाता है, वहां उसे शांति व खुशी मिलती है। वह अपने प्राण प्रतिष्ठित किए गए देवों के समक्ष नतमस्तक होता है । उनसे आध्यात्मिक वार्तालाप करता है। यह उसका निजी संबंध उसके आराध्य से होता है। वह किसी का विरोध नहीं करता और न ही किसी अन्य को ऐसा करने के लिए बाध्य करता है। लेकिन जब कोई उसकी श्रद्धा पर आक्रमण करता है और उसका विरोध करता है तो उसके मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा होता है। उसकी धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा होता है। विश्वास- विश्वास के लिए हल्क