ग्लैमर, पैसा, नशा व अपराध का तड़का है फिल्म संजू बायो पिक

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ग्लैमर, पैसा, नशा व अपराध का तड़का है फिल्म संजू बायो पिक
ग्लैमर, पैसा, नशा व अपराध का तड़का है फिल्म संजू। संजय दत्त के जीवन पर बनी इस फिल्म के लेखक, एडीटर व निर्देशक हैं राजकुमार हीरानी। फिल्म आज के संर्दभ में खरी उतरती है। आज युवा वर्ग नशे की चपेट में आता जा रहा है। नशा एक ऐसा कुंआ है जिसमें फंसने के बाद बाहर आना मुश्किल होता है। यदि प्यार व पक्का विश्वास हो तो नशों से बचा जा सकता है। पिता सुनील दत्त  उनकी पत्नी  एक महान कलाकार थीं। उनकी 2 बेटियां एक बेटा था। पिता-माता अपने काम में व्यस्त रहते हैं और बेटा लाडला होने के कारण गलत संगत में पड़ कर नशों का शिकार हो जाता है। पिता अपने बेटे को हर हाल में हर मुसीबत में उसका साथ देकर उसे बचाने का  काम करता है। वह अपने बेटे से बहुत ही प्यार करता है। पिता अपने बेटे को कामयाब देखना चाहता है और इसके लिए वह हर तरह की कोशिशें करता है। बेटा है कि अपनी ही दुनिया में मजे ले रहा होता है। उसे दुनिया से कोई  लेना-देना नहीं होता। बेटे का अपने माता-पिता को बहुत ही प्यार करता है। मां को वह कभी भी नहीं भूलता। कैंसर से मां का दुनिया से जाना उसके लिए असहनीय वेदना बन जाती है।
 नशों व ग्लैमर की दुनिया में घिरा युवक माफिया गैंग की गिरफ्त में आ जाता है। उसे बचाने के लिए उसका पिता हर कोशिश करता है। वह हार नहीं मानता वह उस बेटे के प्यार में अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है। नशों में घिरे युवकों के लिए यह फिल्म एक सीख बन  सकती है। फिल्म में नशों से जिस प्रकार संजय दत्त बाहर निकलता है और फिर से अपने आप को खड़ा करता है, सराहनीय है। समाचार पत्र व मीडिया कहीं न कहीं खबरों को बेचने का काम करता है। अदालत से पहले ही आरोपी को दोशी बना दिया जाता है। कहीं निर्दोश फंस जाता है और दोशी साफ निकल जाता है। धन व बल का इस्तेमाल भी होता है। गवाह खरीद लिए जाते हैं। अंडरवल्र्ड से एक उच्च राजनेता का बेटा सिर्फ इस कारण से एके-56 असाल्ट राइफल अंडरल्र्ड से ले लेता है कि उस पर कोई हमला न कर दे। इसका कारण वह यह बताता है कि उसका पिता मुसलमानों की मदद कर रहा होता है इसलिए उसे तथाकथित हिन्दू आतंकवादियों से डर था। यह तर्क कुछ हजम नहीं होता। इस मामले में असाल्ट राइफल ज्यादा महत्वपूर्ण कड़ी नहीं है ज्यादा महत्वपूर्ण कड़ी है उन लोगों से ये हथियार खरीदे गए जो मुम्बई धमाकों में कथित तौर पर शामिल थे और यह सब कुछ अचानक नहीं हुआ।
इसके लिए लम्बी साजिशें रची गईं थीं और मरने वाले लगभग 286 व 1000 से ज्यादा घायलों में हिन्दू थे। इस मामले में अबु सलेम सहित सारे आरोपी मुसलमान थे। पुलिस ने कुछ आरोपियों को सजा दी है लेकिन अभी भी
बड़ी मछलियां विदेशों में चिकन बिरियानी खा रही हैं। खतरनाक हत्या के खेल में मरने वालों को अभी तक न्याय नहीं मिला और हिन्दू इन हत्याओं को भूल भी चुके हैं। फिल्म में लोगों की हमदर्दी लेने के लिए कार्ड चलाया गया है। कहीं भी संजू यह पश्चाताप करता नहीं नजर आता कि वह अपराधिक गतिविधियों नशों में शामिल रहा है।
बरहाल हर निर्दोष इंसान को इंसाफ मिलना चाहिए और दोषी को सजा लेकिन असल में ऐसा होता नहीं है।
पिता सारी उम्र अपने बेटे को निर्दोश साबित करवाने में लगा रहता है। वह हर हाल में चट्टान की तरह अपने बेटे के साथ खड़ा रहता है। 300 से ज्यादा लड़कियों के साथ सोने को बहुत ही बहादुरी के साथ डॉयलॉग में बताया जाता है जो युनाओं की मानसिकता को भी दिखाता है। फिल्म में संजू बाबा के एक दोस्त का भी अच्छा रोल है जो उसकी हर मुसीबत में मदद करता है। परेश रावल व नर्गिस दत्त का रोल मनीशा कोइराला ने अच्छी तरह से निभाया है।
राजकुमार हिराना अपने काम में निपुण हैं। फिल्म का संगीत अच्छा है। फिल्म की कहानी में कई प्रश्र उठते हैं जिनका जवाब नहीं दिया जा सकता। यह सिर्फ संजय दत्त ही जानते हैं कि सच्चाई क्या है। क्योंकि अदलतों के फैसलों के बारे में जनता जानती है। अदालते वही फैसला देती हैं जो सबूत व गवाह बोलते हैं ।
फिल्म अच्छी बनी है। संजय दत्त का पक्ष पेश किया गया है। फिल्म में संजू की पहली 2 पत्नियों व बेटी के बार में कोई जिक्र न होना अखरता है। रणवीर ने अच्छा किरदार निभाया है।

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