काल्पनिकता की उड़ान व मानवीय मनोविज्ञान

काल्पनिकता की उड़ान व मानवीय मनोविज्ञान
मानवीय व्यवहार में हर तरह के रस शामिल हैं। भाव, श्रृंगार,वात्सल्य, रौद्र आदि रसों को लेकर ही वह जीवन जीता है। वह अपनी कल्पना शक्ति को इतना विस्तारित करता है कि उसी में रम जाता है। जब इंसान ने पक्षियों को आकास मे उड़ता देखा तो उसने भी स्वप्न में उड़ना शुरु कर दिया। उसकी रचनाओं में पक्षियों आदि जीवों का नाम आने लगा। कुछ ऐसे जीवों की भी रचना हुई जो आधे मानव थे और आधे पशु या पक्षी। जीवों से मानव का इतना घनिष्ट रिश्ता था कि ये अब साहित्य में नजर आता था। यहां तक कि ये जीव बातें भी करते और सामान्य जीवन भी जीते। इतना ही नही पेड़ों को भी शामिल किया गया और पेड़ों को मानव की तरह ही जीवन जीते दिखाया गया। लोक कथाओं में सियार,भालू, बंदर आदि जीवों से बेटियों का विवाह करने व उन्हें दामाद के रूप में अपनाया गया। इन्ही जीवों पेड़ों को अपने ईष्ट व देवों के रूप में भी पूजा गया। किसी पात्र को लेकर उसके आसपास ही सारा कथानक बुना गया।
 इस कथानक में प्राचीन काल के राजीनितिक, धार्मिक व समाजिक इतिहास को इतने रोचक तरीके से कहा गया कि इन्हें समझने के लिए गूढ़ समझ की जरूरत होती थी। उस समय का समाज जैसा था वैसा ही उसका चित्रण इन प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में मिल जाएगा। पुराणों की  हों या पंचतंत्र या विक्रम बेताल की कथाएं मानवीय मनोविज्ञान का सटीक विश्लेषण करती दिखाई देती हैं। मानव जीवों, पेड़ों से संवाद करना एक गूढ़ संबंध का परिचायक है। इनमें मानवीय भय की कल्पना भी एक असीम छोर को छूती दिखाई देती है और प्रेम व यौन संबंधों का भी बेबाकी से विवरण मिलता है।

हालीवु़ड व भारतीय प्राचीन ग्रंथों से प्रेरणा-  हालीवुड फिल्मों में भारतीय दर्शन व परिकल्पनाओं का एक ऐसा मिश्रण मिलता है कि ऐसी फिल्में करोड़ों डॉलर की कमाई कर चुकी हैं। इन्साटेलर, ग्रेविटी, मैट्रिक, अवटार, टाम ट्रैवल पर बनी सभी फिल्मों का आधार पुराणों की कथाओं में आपको मिल जाएगा। इन फिल्मों में आपको संस्कृत के श्लोकों का उच्चारण भी संगीत के माध्यम से मिल जाएगा। ये फिल्में इतनी सफल हुईं कि इनके कई दूसरे पार्ट भी बने।

मानव के डर का व्यवसाय- आज दुनियाभर में डरावनी फिल्मों का अरबों का सालाना व्यापार है। शायद ही कोई होगा जिसने कोई हारर फिल्म न देखी हो। आज लोगों को डर का काल्पनिक संसार दिखाकर उनकी जेब से करोड़ों रुपए निकाल लिए जाते हैं। कुछ लोगों के चेतन व अवचेतन दिमाग पर इन फिल्मों का इतना असर रहता है कि वे इन्हें जीवन की सच्चाईयों की तरह ही जीने लगते हैं। भारतीय परम्परा में जहां इसका प्रयोग समाज के भले के लिए किया जाता था जैसे किसी जानवर को पीड़ा दोगे या किसी हरे पेड़ को काटोगे तो आपको भी वैसा ही कष्ट भोगना होगा।

वहीं यहां इन हारर फिल्मों कुछ भी नहीं होता। सिर्फ दुराचार, हत्या व भय ही दिखाया जाता था। जब आप एक परिकल्पना या भय को छोड़ देते हैं या आपसे उसे छुड़वा दिया जाता है तो उसका व्यवसाइकरण हो जाता है। भारतीय जनमानस ने जैसे ही अपने प्राचीन ग्रंथों की मूल भावना को ठुकरा दिया वैसे ही उनकी मानसिकता को अपनी तरफ मोड़ कर मोटा मुनाफा कमाया जा रहा है। आज प्राचीन भारतीय ग्रंथों पर आधारित भारत में कोई फिल्म बने या न बनें लेकिन हालीवुड में ऐसी फिल्में बनाकर करोड़ों डालर कमाए जा रहे हैं। जबकि इन फिल्मों में ऐसा कुछ नया नहीं होता जो हजारों साल पहले लिखे गए भारतीय ग्रंथों में न हो।


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