कुंडली में महादशा व अंतरदशा क्या होती है | विंशोतंरी महादशा

महादशा शब्द का अर्थ है वह विशेष समय जिसमें कोई ग्रह अपनी प्रबलतम अवस्था में होता है और कुंडली में अपनी स्थिति के अनुसार शुभ-अशुभ फल देता है। कुंडली में अंतर व प्रत्यंतर दशा को 9 ग्रहों के अनुसार बांटा गया है। 9 ग्रहों को आगे 12 राशियों में विभाजित किया गया है। जिन ग्रहों के पास एक-एक राशि का  स्वामित्व है वे हैं सूर्य व चन्द्र । इनके अतिरिक्त अन्य ग्रहों के पास दो-दो राशियों का स्वामित्व है। सारी गणना भारतीय ज्योतिष के अनुसार ही होती है जिसमें वैदिक गणित का मुख्य रोल है।
विंशोतंरी महादशा के अनुसार व्यक्ति की आयु 120 वर्ष तक मानी गई है। इन 120 वर्षों में आदमी के जीवन में सभी ग्रहों की महादशा पूर्ण हो जाती हैं।

ज्योतिषशास्त्र में परिणाम की प्राप्ति होने का समय जानने के लिए जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है उनमें से एक विधि है विंशोत्तरी दशा। विंशोत्तरी दशा का जनक महर्षि पाराशर को माना जाता है। पराशर मुनि द्वारा बनाई गयी विंशोत्तरी विधि चन्द्र नक्षत्र पर आधारित है। इस विधि से की गई भविष्यवाणी कामोवेश सटीक मानी जाती है, इसलिए ज्योतिषशास्त्री वर्षों से इस विधि पर भरोसा करके फलकथन करते आ रहे हैं। विशोत्तरी दशा पद्धति ज्यादा लोकप्रिय एवं मान्य है। विंशोत्तरी दशा के द्वारा हमें यह भी पता चल पाता है कि किसी ग्रह का एक व्यक्ति पर किस समय प्रभाव होगा। “महर्षि पराशर” को विंशोत्तरी दशा का पिता माना जाता है।  सर्वाधिक प्रचलित विंशोत्तरी दशा ही है। उसके बाद योगिनी दशा है।

विंशोत्तरी दशा से फलकथन शत-प्रतिशत सही पाया गया है। महर्षियों और ज्योतिषियों का मानना है कि विंशोत्तरी दशा के अनुसार कहे गये फलकथन सही होते हैं।

 सू्र्य  की महादशा का समय 6 वर्ष है, चंद्र की 10 वर्ष, मंगल की 7 वर्ष, राहू की 18 वर्ष, गुरु की 16 वर्ष, शनि ग्रह की 19 वर्ष, बुध ग्रह की 17वर्ष, केतु ग्रह की 7 वर्ष, शुक्र ग्रह की महादशा का समय 20 वर्ष है।

किसी राशि में महादशा के दौरान मुख्य ग्रहों के भ्रमण के दौरान अन्य ग्रह भी भ्रमण करते हैं। ये अन्य ग्रह जो समय लेते हैं उसे अन्तर्दशा कहा जाता है।

इन वर्षों में मुख्य ग्रहों की महादशा में अन्य ग्रहों को भी भ्रमण का समय दिया जाता है जिसे अन्तर्दशा कहा जाता है। जिस मुख्य ग्रह की महादशा होगी, पहले उसी की अंतर्दशा आएगी और फिर अन्य ग्रह उसी प्रकार से भ्रमण करेंगे।

इसी प्रकार ग्रहों की अन्तर्दशा एफेमेरिज से निकाली जाती है। सूक्ष्म गणना के लिए अन्तर्दशा में उन्हीं ग्रहों की प्रत्यंतर दशा भी निकली जाती है, जो इसी क्रम से चलती है। इससे  घटनाओं के ठीक समय का आंकलन किया जा सकता है।
विशेष :
महादशा में अंर्तदशा, अंतर्दशा में प्रत्यंतर दशा आदि का विचार करते समय दशाओं के स्वामियों के परस्पर संबंधों पर ध्यान देना चाहिए। यदि परस्पर घनिष्टता है और किसी भी तरह से संबंधों में वैमनस्य नहीं है तो दशा का फल अति शुभ होगा। यदि कहीं मित्रता और कहीं शत्रुता है तो फल मिश्रित होता है। जैसे- गुरु और शुक्र आपस में नैसर्गिक शत्रु हैं लेकिन दोनो ही ग्रह नैसर्गिक शुभ भी हैं।
दशाफल का विचार करते समय कुंडली में दोनों ग्रहों का आपसी संबंध देखना चाहिए। पंचधा मैत्री चक्र में यदि दोनों में समता आ जाती है तो फल शुभ होगा।
दशा अपनी अवधि में सदैव एक सा फल नहीं देती। दशा में अंतर्दशा, प्रत्यंतर्दशा, सूक्ष्म दशा, प्राण दशा और गोचर स्थिति के अनुसार फल में बदलाव आता रहता है। यदि सभी स्थितियां शुभ होंगी तो उस समय अतिउत्तम शुभ फल जातक को प्राप्त होगा। यदि कुछ स्थिति शुभ और कुछ अशुभ रहेगी तो फल मिश्रित होगा। माना जाता है कि कुंडली में 6, 8,12 स्थान में बैठे ग्रहों की दशा अच्छी नहीं होती। इन भावों के स्वामी की दशा भी कष्ट देती है।
 शत्रु ग्रह की, पाप ग्रह की और नीचस्थ ग्रह की अन्तर्दशा अशुभ होती है। शुभ ग्रह में शुभ ग्रह की अन्तर्दशा अच्छा फल देती है।इसी प्रकार जो ग्रह 1,4,5,7,9 वें भावों में होते हैं उनकी दशा शुभ फल प्रदान करती है। ग्रह गोचर का भी दशाओं में उचित प्रभाव पड़ता है। जो ग्रह केंद्र या त्रिकोण का स्वामी होकर 3, 6, 8, 11, 12 का स्वामी भी हो तो दशा का फल मिश्रित होता है।

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