रसों से ईश्वरीय गुणों का अनुभव
रसों से ईश्वरीय गुणों का अनुभव
मानवीय व्यवहार में ईश्वर ने रस भी भरा है।श्रंगार रस से परिपूर्ण मंदिरों से निकली कलाओं में शास्त्रीय संगीत जिसमें हर राग का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया गया है कि हर राग को गाने से ईश्वरीय तत्व उजागर होते हैं । संगीत की देवी सरस्वती है। यानि संगीत ईश्वर की वाणि है। मोहनी अट्टम, भरत नाट्यम, कत्थक कली आदि नृत्यों की एक-एक भाव भंगिमा पर ध्यान दिया जाता है कि कैसे ईश्वर के रस भाव को जगाना है और स्तुति करनी है। ये नृत्य श्रद्धा भाव से ईश्वर की स्तुति में किए जाते रहे हैं। दुनिया में सनातन पद्धति में ही रसों को ईश्वरीय भाव से जोड़ा गया है।
ईस्लाम व ईसाइयत में ऐसी कोई सम्भावना नहीं है। ईस्लाम में तो ललित कलाओं व संगीत को हराम कहा गया है। अब बड़ी चालाकी से इन ईश्वरीय रसों को सैक्कूलर बनाया जा रहा है। देव स्तुति की जगह यीशु की स्तुति घुसेड़ दी गई है, सरस्वती वंदना को निकाल दिया गया है । नृत्य व नाट्य कला के नियम तो वही हैं लेकिन जिस देव के लिए जहां पर इसे प्रस्तुत किया जाना होता है वहां नहीं किया जाता।
इसे बाजारू बनाने की कोशिशें जारी हैं। हमारी सनातन परम्पराओं में रसों का बहुत ही महत्व है। इस देव संस्कृति को बचाने के लिए हर भारतीय को पूरा योगदान देना चाहिए ताकि इसे बिखरने से रोका जा सके। अपनी पीढ़ी को इसमें पारंगत बनाना चाहिए ताकि यह परम्परा विदेशी हाथों में न चली जाए।
मानवीय व्यवहार में ईश्वर ने रस भी भरा है।श्रंगार रस से परिपूर्ण मंदिरों से निकली कलाओं में शास्त्रीय संगीत जिसमें हर राग का इतना सूक्ष्म अध्ययन किया गया है कि हर राग को गाने से ईश्वरीय तत्व उजागर होते हैं । संगीत की देवी सरस्वती है। यानि संगीत ईश्वर की वाणि है। मोहनी अट्टम, भरत नाट्यम, कत्थक कली आदि नृत्यों की एक-एक भाव भंगिमा पर ध्यान दिया जाता है कि कैसे ईश्वर के रस भाव को जगाना है और स्तुति करनी है। ये नृत्य श्रद्धा भाव से ईश्वर की स्तुति में किए जाते रहे हैं। दुनिया में सनातन पद्धति में ही रसों को ईश्वरीय भाव से जोड़ा गया है।
ईस्लाम व ईसाइयत में ऐसी कोई सम्भावना नहीं है। ईस्लाम में तो ललित कलाओं व संगीत को हराम कहा गया है। अब बड़ी चालाकी से इन ईश्वरीय रसों को सैक्कूलर बनाया जा रहा है। देव स्तुति की जगह यीशु की स्तुति घुसेड़ दी गई है, सरस्वती वंदना को निकाल दिया गया है । नृत्य व नाट्य कला के नियम तो वही हैं लेकिन जिस देव के लिए जहां पर इसे प्रस्तुत किया जाना होता है वहां नहीं किया जाता।
इसे बाजारू बनाने की कोशिशें जारी हैं। हमारी सनातन परम्पराओं में रसों का बहुत ही महत्व है। इस देव संस्कृति को बचाने के लिए हर भारतीय को पूरा योगदान देना चाहिए ताकि इसे बिखरने से रोका जा सके। अपनी पीढ़ी को इसमें पारंगत बनाना चाहिए ताकि यह परम्परा विदेशी हाथों में न चली जाए।
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