कर्म का सिद्धांत पश्चिम में कैसे पहुंचा
भारत के लोग सदियों कर्म पर बहुत विश्वास करते हैं। अच्छा कर्म करोगे तो अच्छा होगा बुरा कर्म करोगे तो बुरा फल मिलेगा। हर इंसान को अच्छा कर्म करने के लिए संत, धर्म गुरु प्रेरित करते रहते हैं। सेवा के प्रकल्प भी चलाए जाते रहते हैं। अच्छा कर्म करेंगे तो इस जन्म व आने वाले अगले जन्म में भी इसका लाभ मिलेगा। जब कोई हिन्दू सेवा प्रकल्प करता है चाहे वह गऊओं को चारा देता है, कुत्तों व पंछियों को भोजन देता है तो उसका विश्वास होता है कि ये जीव उससे अलग नहीं हैं और इनमें आत्मा का वास है इसलिए इनकी सेवा करने से इस जन्म में तो अच्छा फल मिलेगा ही अगले जन्म में भी अच्छा फल मिलेगा। इसमें कहीं व कहीं आध्यात्मिक सुख भी जुड़ा है। हिन्दू ये सोचते हैं कि सभी जीवों, पेड़ों आदि का संरक्षण करना उनकी जिम्मेदारी है क्योंंकि उनकी प्रार्थना तभी सुनी जाएगी जब वे ये कर्म करेंगे।
पश्चिम में कर्म व पूर्वजन्म का विश्वास प्रचलित नहीं था। वहां के लोगों ने दूसरों को गुलाम बनाया, उनपर आक्रमण करके उनकी हत्याएं की, उनके प्राकृतिक स्रोतों, मानवाधिकारों का हनन किया। वे कभी नहीं सोचते थे कि उनके बुरे कर्मों का फल उनको मिलेगा क्योंकि ये शब्द उनकी डिक्शनरी में था ही नहीं। वे शासक थे और अपनी मनमानियां करते। लेकिन जैसे ही जैसे ही एवरी एक्शन देयर इज ईक्वल एंड आपोजिट रिएक्शन का सिद्धांत वैज्ञानिकों ने खोजा तो वे सोचने को मजबूर हो गए कि की गई कोई भी क्रिया का भी वापसी असर होता है। बस फिर क्या था कर्मा का सिद्धांत प्रचलित हो गया। आज जब आप किसी पश्तिमी से बात करते हो तो वह गुड कर्मा व बैड कर्मा के बारे में बात जरूर करेगा।
मिशनरियों का सेवा भाव का प्रकल्प- मिशनरियां सेवा भाव के प्रकल्प चलाती हैं लेकिन वे किसी कर्म या दूसरे जन्म में इसका लाभ मिलने के लिए नहीं चलातीं। वे समझती हैं कि लोगों को दुख इसलिए आते हैं क्योंकि ईशू उनको बुला रहा है। ईशू ने लोगों के दुखों को दूर करने के लिए स्वयं दुख झेले ताकि किसी को कोई दुख न हो। यदि किसी को कोई दुख है तो उसे ईशू याद करता है और उसे यीशू की सख्त जरूरत है। इसीलिए मिशनरियां समझती हैं कि यीशू के साथ जुड़ने से ही लोग अंधकार से निकल सकते हैं और ईशू से उनको मिलवाना ही ईश्वर का आदेश है। यही से धर्मपरिवर्तन करवाना उनका पहला कर्त्वय है।
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