क्या ब्राह्मण यूरेशिया से आए थे, क्या वे विदेशी हैं ?
क्या ब्राह्मण यूरेशिया से आए थे, क्या वे विदेशी हैं ?
आजकल आपको कई दलित संगठन पश्चिम की यूनिवर्सिटियों द्वारा घड़े गए विचार कि ब्राह्मण यूरेशिया से आए थे, इस प्रकार से वे विदेशी हुए। इनके खिलाफ इस निम्न स्तर की घृणा फैलाई जा रही है जो हिटलर की तरफ से यहूदियों के नरंसहार से पहले 10 साल तक लगातार चलाई गई। ब्राह्मणों को सारी समस्याओं का कारण बताकर उनको खत्म कर देने या जान से मारने तक की घोषणा खुले मंचों से की जाती है। इस वामपंथी ट्रैप में कई भोले-भाले दलित भी फंस गए हैं। हम इस जाली थ्यूरी का आपके सामने पर्दाफाश करते हैं। पहले तो आप देखे यूरेशिया क्या है। यूरोप व एशिया के इलाके जहां एक साथ होते हैं उन इलाकों को यूरेशिया कहते हैं। इस भू भाग में पड़ने वाले देशों के बारे में लिस्ट आप गूगल पर सर्च करके पा सकते हैं। इसमें लगभग 40 देश आते हैं। अब हम इसका तथ्यात्मक अध्ययन करेंगे।
यूरेशिया के इन देशों में कहीं भी ब्राह्मण नहीं मिलते, न ही संस्कृत भाषा के कोई ग्रंथ मिलते हैं और न ही कोई अवशेष की वहां पर कभी ब्राह्मण रहा करते थे।
मान लो यदि ब्राह्मण इन देशों से आए तो वे अपने पीछे कुछ तो छोड़कर आए होंगे। जैसे मारिशस के गिकमिटिया मजदूरों को आज भी पता है कि वे बिहार के किस गांव से हैं उनका गोत्र क्या है और उनके पास आज भी उनके धार्मिक ग्रंथ हैं जो वे अपने सीने से लगाए रखे और अगली पीढ़ी के लिए वे प्रेरणा स्रोत बने। उनका धर्म नहीं बदला। इसी प्रकार से अमेरिका में बसे काले व गोरों को पता है कि उनके पूर्वज युरोप या अफ्रीका के किन देशों से आए थे।
दूसरी बात यूरेशिया के किसी भी देश में भारत के ब्राह्मणों का डीएनए नहीं मिलता, न ही वेद और न ही शिखा, न ही संस्कृत। हां यूरेशिया की सारी भाषाओं में संस्कृत के 75 प्रतिशत शब्द कुछ उच्चारण के बदलाव के साथ मिलते हैं। आप आसाम में चले जाएं तो आपको असमी ब्राह्मण मिलेंगे जो किसी भी तरह रूप रंग,रहन सहन से असमियों से अलग नहीं लगेंगे।
इसी तरह यूपी, गुजरात, दक्षिण भारत या अन्य किसी भी हिस्से में रह रहे ब्राह्मण आपको किसी भी तरह से उस उस इलाके से अलग नहीं दिखेंगे। आपको ब्राह्मण काले भी मिलेंगे और गोरे भी। जिस स्थान पर जो लोग अध्यापन,गुरुकुल या पूजा कार्य में लगे थे उन्हें ब्राह्मण कह दिया गया। ब्राह्मण कोई अफ्रीकी, यूरोपियन, या अरबियों की तरह एक रेस नहीं है। ये एक कार्य के आधार पर बनाया गया तबका था जैसे अाज डाक्टर, इंजीनीयर, नेता आदि हैं। इसी प्रकार क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र हैं । कई ब्राह्मणों के वंशज आदिवासी व दलित भी रहे हैं। यह एक क्लास है जिसमें कोई भी अपनी क्लास को छोड़कर शामिल हो सकता है। यदि आप महानगरों में स्वयं को ब्राह्मण कह कर या पंडित जी कहलाते हैं तो किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होती।
महर्षि वेद व्यास जी मछुआरिन के बेटे थे लेकिन वे अपनी ब्राह्मण बने तो उन्होंने महाभारत लिख दिया। कहते हैं कि झूठ व नफरत तेजी से फैलता है क्योंकि उसके पांव नहीं होते। आज इसी कारण नफरत फैलाई जा रही है ताकि भारत को तोड़ा जा सके । प्रमाण के साथ बात रखने से भी नफरती दिमाग इसे नहीं मानता।
आजकल आपको कई दलित संगठन पश्चिम की यूनिवर्सिटियों द्वारा घड़े गए विचार कि ब्राह्मण यूरेशिया से आए थे, इस प्रकार से वे विदेशी हुए। इनके खिलाफ इस निम्न स्तर की घृणा फैलाई जा रही है जो हिटलर की तरफ से यहूदियों के नरंसहार से पहले 10 साल तक लगातार चलाई गई। ब्राह्मणों को सारी समस्याओं का कारण बताकर उनको खत्म कर देने या जान से मारने तक की घोषणा खुले मंचों से की जाती है। इस वामपंथी ट्रैप में कई भोले-भाले दलित भी फंस गए हैं। हम इस जाली थ्यूरी का आपके सामने पर्दाफाश करते हैं। पहले तो आप देखे यूरेशिया क्या है। यूरोप व एशिया के इलाके जहां एक साथ होते हैं उन इलाकों को यूरेशिया कहते हैं। इस भू भाग में पड़ने वाले देशों के बारे में लिस्ट आप गूगल पर सर्च करके पा सकते हैं। इसमें लगभग 40 देश आते हैं। अब हम इसका तथ्यात्मक अध्ययन करेंगे।
यूरेशिया के इन देशों में कहीं भी ब्राह्मण नहीं मिलते, न ही संस्कृत भाषा के कोई ग्रंथ मिलते हैं और न ही कोई अवशेष की वहां पर कभी ब्राह्मण रहा करते थे।
मान लो यदि ब्राह्मण इन देशों से आए तो वे अपने पीछे कुछ तो छोड़कर आए होंगे। जैसे मारिशस के गिकमिटिया मजदूरों को आज भी पता है कि वे बिहार के किस गांव से हैं उनका गोत्र क्या है और उनके पास आज भी उनके धार्मिक ग्रंथ हैं जो वे अपने सीने से लगाए रखे और अगली पीढ़ी के लिए वे प्रेरणा स्रोत बने। उनका धर्म नहीं बदला। इसी प्रकार से अमेरिका में बसे काले व गोरों को पता है कि उनके पूर्वज युरोप या अफ्रीका के किन देशों से आए थे।
दूसरी बात यूरेशिया के किसी भी देश में भारत के ब्राह्मणों का डीएनए नहीं मिलता, न ही वेद और न ही शिखा, न ही संस्कृत। हां यूरेशिया की सारी भाषाओं में संस्कृत के 75 प्रतिशत शब्द कुछ उच्चारण के बदलाव के साथ मिलते हैं। आप आसाम में चले जाएं तो आपको असमी ब्राह्मण मिलेंगे जो किसी भी तरह रूप रंग,रहन सहन से असमियों से अलग नहीं लगेंगे।
इसी तरह यूपी, गुजरात, दक्षिण भारत या अन्य किसी भी हिस्से में रह रहे ब्राह्मण आपको किसी भी तरह से उस उस इलाके से अलग नहीं दिखेंगे। आपको ब्राह्मण काले भी मिलेंगे और गोरे भी। जिस स्थान पर जो लोग अध्यापन,गुरुकुल या पूजा कार्य में लगे थे उन्हें ब्राह्मण कह दिया गया। ब्राह्मण कोई अफ्रीकी, यूरोपियन, या अरबियों की तरह एक रेस नहीं है। ये एक कार्य के आधार पर बनाया गया तबका था जैसे अाज डाक्टर, इंजीनीयर, नेता आदि हैं। इसी प्रकार क्षत्रीय, वैश्य व शूद्र हैं । कई ब्राह्मणों के वंशज आदिवासी व दलित भी रहे हैं। यह एक क्लास है जिसमें कोई भी अपनी क्लास को छोड़कर शामिल हो सकता है। यदि आप महानगरों में स्वयं को ब्राह्मण कह कर या पंडित जी कहलाते हैं तो किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होती।
महर्षि वेद व्यास जी मछुआरिन के बेटे थे लेकिन वे अपनी ब्राह्मण बने तो उन्होंने महाभारत लिख दिया। कहते हैं कि झूठ व नफरत तेजी से फैलता है क्योंकि उसके पांव नहीं होते। आज इसी कारण नफरत फैलाई जा रही है ताकि भारत को तोड़ा जा सके । प्रमाण के साथ बात रखने से भी नफरती दिमाग इसे नहीं मानता।
वतर्मान में हरियाणा के राखीघाड़ी से मिली सभ्यता सिंघू घाटी, मोहनजोदाड़ो से भी पुरानी सभ्यता मिली है। वहां घोड़ों, रथों, हथियारों के अवशेष मिले हैं। इसके इलावा इंसानों के कंकालों के डीएनए की जांच की गई तो पता चला कि ये सभी भारतीयों के डीएनए से मैच करते हैं। सभी भारतीयों का डीएनए एक जैसा मैच करता है।
इसके इलावा ऐसा भी तर्क दिया जाता है कि ब्राह्मणों का रंग यूरोप के लोगों से मेल खाता है यानि कि वे रंग में सफेद चमड़ी के हैं, यह दावा भी खारिज हो जााता है क्योंकि आपको दक्षिण भारत में लगभग सभी ब्राह्मण श्याम रंग के मिलेंगे, उत्तर भारत में साफ चमड़ी व काली चमड़ी दोनों रंगों में मिलेंगे और पूर्व उत्तर भारत में सभी दलित, ब्राह्मण एक ही रंग के मिलेंगे। तथाकथित मूलनिवासियों के सारे दावे असफल साबित होते हैं।
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