युवाओं ने अखबार पढ़ने क्यों बंद कर दिए
युवाओं ने अखबार पढ़ने क्यों बंद कर दिए
एक समय था जब तस्वीरें खींची जाती थीं। रीलों को लैब में लेकर जाया जाता था और फिर फोटो के प्रिंट निकाल लिए जाते थे। यह एक फोटोग्राफी का दौर था। जब डिजीटल कैमरों की बात चली तो परम्परागत फोटोग्राफर कहते थे कि लोगों को प्रिंट की आदत है इसलिए उनके काम को कोई खतरा नहीं है और वे उन्हीं कैमरों से काम चलाते रहे। डिजिटल कैमरों की एक ऐसी आंधी आई कि सबकुछ उड़ा ले गई ।
इसमें बार- बार रील डालने के झंजट से मुक्ति मिल गई और फोटोग्राफर का खर्चा भी कम हो गया क्वालिटी भी उम्दा थी। इस प्रकार सारा काम डिजीटल हो गया। परम्परागत फोटोग्राफरों को भी इसी काम में आना पड़ा जो नहीं आ सके वे घर बैठ गए।
अब घर में 45 से ऊपर के लोग ही अखबार का इंतजार करते हैं। युवा मोबाइल पर ही समाचार एप डाऊनलोड करके सारे समाचार पढ़ लेते हैं। दुनिया की एक बड़ी जनसंख्या डिजीटल की तरफ स्विच हो गई है। अब बहुत कम युवा आपको गाड़ी में या बस में कोई किताब पढ़ते नजर आएंगे वे मोबाइल में ही डूबे रहते हैं। मोबाइल फोन पर ही संगीत,फिल्मे व समाचार मिल जाते हैं और वे भी मामूली सी कीमत पर ।
यदि किसी के घर में एक अखबार आती है तो महीने का औसतन 500 रुपए खर्च लेकर चलते हैं यानि साल का 6 हजार रुपए दो या तीन समाचार पत्र आते हैं तो तीन या 4 गुणा हो जाता है। कोई मैगजीन आती है तो खर्च अलग से। यदि इसे रद्दी में भी बेचा जाए तो साल में 1200 रुपए की रद्दी ही बिकती है। आपको यदि यह सारा कुछ एक मोबाइल में मिल जाता है तो आप कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार इसे पढ़ सकते हैं। एक समाचार की कापी को छापने में 20 से 25 रुपए का खर्च आता है और इसे बहुत ही कम रेट में
बेचा जाता है। पेपर के लिए कई पेड़ों को काटा जाता है ।
स्याही आदि भी लगती है जो कि पढ़ने वाले के हाथों में लगती है, स्वास्थय के लिए हानिकारक होती है। अखबरों की प्रसार संख्या लगातार कम होने का कारण इंरनेट पोर्टल की तरफ लोगों का झुकाव है। अब प्रिंट मीडिया की एकतरफा चालाकियों को भी लोग समझ चुके हैं कि कैसे पेड न्यूज लगाकर पाठकों को बेवकूफ बनाया जाता रहा है। अगले 10 सालों में प्रिंट मीडिया के बुरे दिन शुरु होने वाले हैं जिन बढ़े अखबार मालिकों ने चेनल शुरु कर दिए हैं वे समय की नजाकत को समझ गए हैं।
एक समय था जब तस्वीरें खींची जाती थीं। रीलों को लैब में लेकर जाया जाता था और फिर फोटो के प्रिंट निकाल लिए जाते थे। यह एक फोटोग्राफी का दौर था। जब डिजीटल कैमरों की बात चली तो परम्परागत फोटोग्राफर कहते थे कि लोगों को प्रिंट की आदत है इसलिए उनके काम को कोई खतरा नहीं है और वे उन्हीं कैमरों से काम चलाते रहे। डिजिटल कैमरों की एक ऐसी आंधी आई कि सबकुछ उड़ा ले गई ।
इसमें बार- बार रील डालने के झंजट से मुक्ति मिल गई और फोटोग्राफर का खर्चा भी कम हो गया क्वालिटी भी उम्दा थी। इस प्रकार सारा काम डिजीटल हो गया। परम्परागत फोटोग्राफरों को भी इसी काम में आना पड़ा जो नहीं आ सके वे घर बैठ गए।
अब घर में 45 से ऊपर के लोग ही अखबार का इंतजार करते हैं। युवा मोबाइल पर ही समाचार एप डाऊनलोड करके सारे समाचार पढ़ लेते हैं। दुनिया की एक बड़ी जनसंख्या डिजीटल की तरफ स्विच हो गई है। अब बहुत कम युवा आपको गाड़ी में या बस में कोई किताब पढ़ते नजर आएंगे वे मोबाइल में ही डूबे रहते हैं। मोबाइल फोन पर ही संगीत,फिल्मे व समाचार मिल जाते हैं और वे भी मामूली सी कीमत पर ।
यदि किसी के घर में एक अखबार आती है तो महीने का औसतन 500 रुपए खर्च लेकर चलते हैं यानि साल का 6 हजार रुपए दो या तीन समाचार पत्र आते हैं तो तीन या 4 गुणा हो जाता है। कोई मैगजीन आती है तो खर्च अलग से। यदि इसे रद्दी में भी बेचा जाए तो साल में 1200 रुपए की रद्दी ही बिकती है। आपको यदि यह सारा कुछ एक मोबाइल में मिल जाता है तो आप कहीं भी अपनी सुविधा के अनुसार इसे पढ़ सकते हैं। एक समाचार की कापी को छापने में 20 से 25 रुपए का खर्च आता है और इसे बहुत ही कम रेट में
बेचा जाता है। पेपर के लिए कई पेड़ों को काटा जाता है ।
स्याही आदि भी लगती है जो कि पढ़ने वाले के हाथों में लगती है, स्वास्थय के लिए हानिकारक होती है। अखबरों की प्रसार संख्या लगातार कम होने का कारण इंरनेट पोर्टल की तरफ लोगों का झुकाव है। अब प्रिंट मीडिया की एकतरफा चालाकियों को भी लोग समझ चुके हैं कि कैसे पेड न्यूज लगाकर पाठकों को बेवकूफ बनाया जाता रहा है। अगले 10 सालों में प्रिंट मीडिया के बुरे दिन शुरु होने वाले हैं जिन बढ़े अखबार मालिकों ने चेनल शुरु कर दिए हैं वे समय की नजाकत को समझ गए हैं।
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