अमेरिका की युनिवर्सिटियों का असली काम क्या है?
https://youtu.be/PU0uGToviXo्रअमेरिका की युनिवर्सिटियों का असली काम क्या है?
अभी कुछ वर्ष पहले अमेरिका की कोलम्बिया युनिवर्सिटी ने घोषणा की कि वह अपने यहां संस्कृत चेयर स्थापित करेगी। यहां पर वेदों उपनिशदों का संस्कृत से अंग्रेजी में अनपवाद किया जाएगा। इस फैसले के बाद भारतीयों को तो ऐसा लगा कि पता नहीं उन्हें क्या मिल गया।
अमेरिका की फोर्ड कम्पनी व अरबपति कृष्ण मूर्ति जैसे लोगों ने लाखों डॉलर इस चेयर की स्थापना के लिए दान दिया। इस चेयर के प्रमुख प्रोफैसर शेलडन पोलेक हैं जो संस्कृति के विद्वान हैं। वह वामपंथी विचारक हैं। इसके लिए श्रंृगेरी मठ के शंकराचार्य से भी आशीर्वाद ले लिया गया। इस चेयर में कोई भी नियुक्ति शेलडन पोलेक करेंगे। वे वेदों आदि का अनुवाद अपने नजरिए से करेंगे। इसमें संस्कृत को दबाने वाली, केवल एक वर्ग विशेष की व मरी हुई भाषा के तौर पर लिखा जाएगा। यह काम पूरा होने के बाद भारत से व संस्कृत से नफरत करने वाले युवाओं को इसका अनुवाद करवाकर पढ़ाया जाएगा और अगले 10 वर्षों में यही अंग्रेजी के गं्रथ प्रमाणित होंगे और भारवृत व अन्य देशों की युनिवर्सिटियों में पढ़ाए जाएंगे और नए प्रोफैसर तैयार होंगे। इसके बाद भारतीय पेरम्परा के संस्कृत मठों का अस्तित्व मिट जाएगा। क्योंकि इन्हीं ग्रंथों के आधार पर नौकरियां मिलेंगंी।
आपने गौर किया होगा कि स्व. गौरी लंकेश, अरुंधती राय, अम्रत्य सेन, कंचन इलाहा, मूल निवासी वामन, भारतीय राज्यों के अलगाववादियों को विचारधारा कहां से मिलती है। ये सभी लोग इन्हीं युनिवर्सिटियों की पैदाइश हैं। भारत में मूल निवासी विचारधारा का मुख्य
स्रोत यही युनिवर्सिटियां हैं। यहीं से इनको फंड मिलता है और इनके अमेरिका दौरों के दौरान इनके भाषण इत्यादि का इंतजाम भी यहीं से होता है। आपने गौर किया होगा कि इन युनिवर्सिटियों में किसी भी राष्ट्रवादी, भारतीय संस्कृति से प्यार करने वाले एक भी होनहार को घुसने नहीं दिया जाता क्योंकि ये उनके काम के नहीं होते। यहां केवल उन लोगों को जगह मिलती है जो इनके एजैंडों की पूर्ति करता हो। यह भी एकतरह का युद्ध ही होता है। चीन, जापान, इजराइल जैसे सशक्त देशों की सरकारें इनकी चालों से वाकिफ हैं लेकिन भारत में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां बहुत ही आसानी से ये लोग अपनी नफरती विचारधाराएं पूरे प्रोफैशनल तरीके से घुसा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल भारत में ही ऐसा हो रहा है। विश्व में लगभग हर देश में ऐसा काम चल रहा है। मूल निवासी जैसा फंडा अफ्रीका, पाकिस्तान, बंगलादेश आदि देशों में थोड़ी हेरफेर करके फैलाया जा रहा है। अमेरिका चाहता है कि भारत चीन की तरह पावफुल न बने और ये समस्याएं भारत के लिए सिरदर्द बनी रहें और लोग आपस में नफरत की वजह से एक दूसरे के साथ लड़ मरते रहें।
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