शिवार्चन व रुद्राभिषेक क्या होता है? what is Shivarchan?
शिवार्चन व रुद्राभिषेक क्या होता है
शिव इस सृष्टि के संहारक हैं और वे इसे ट्रांसफार्म करते हैं। ऊर्जा को एक स्तर से दूसरे स्तर तक ले जाते हैं। सारे प्राणियों का जीवनआधार हैं। शिव ही शक्ति का संचार हैं। शिव ही जीवन हैं।महादेव के स्तर तक जो पहुंच जाता है वह है महायोगी- भगवान शिव। महादेव की अराधना से सभी दुखों से छुटकारा और हर प्रकार के भौतिक सुखों की प्राप्ति हो जाती है। जो भक्त भगवान शिव का शिवार्चन, रुद्राभिषेक करते हैं वे दुनिया में अजेय हो जाते हैं उन्हें कोई जीत नहीं सकता। विश्व में उनकी विजय पताका घूमती है। पुत्रवान होते हैं और धन की किसी प्रकार की कमी नहीं रहती। महादेव आसानी से प्रसन्न हो जाते हैं और वरदान दे देते हैं। निर्धन को धनवान बनाते हैं, रोगी को रोग मुक्त करते हैं, निसंतान को संतान का सुख देते हैं। मन को स्थिरता प्रदान करते हैं।
सावन मास में आपने रुद्रािभिषेक करवाना हो तो आपको किसी मुहूर्त की आवश्यकता नहीं होती। पूरा सावन मास भगवान शिव का ही मास माना जाता है किसी भी उचित समय में पूजा की जा सकती है। मन में श्रद्धा भाव से करवाई गई पूजा से हर काम सफल होते हैं। भगवान शिव महादेव हैं बहुत ही भोले हैं। शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं और मन वांछित वरदान देते हैं।
महादेव के भक्त रुद्राभिषेक शिवार्चन करके अपनी मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं।
भगवान शिव का बिल्व पत्र से पूजन करने पर धन की इच्छा पूरी होती है। दूर्वा के अंकुर से पूजन करने पर शांति मिलती है और चम्पा के फूलों से शिवार्चन करने पर दीर्घायु कामना पूरी तथा उत्तम धान्य से पूजन करने पर बुरे सपने नहीं आते।
घर में किया गया जप सामान्य फलदायक, गौशाला में किया गया जप उससे सौ गुना अधिक फलदायक, नदी तट पर की गयी आराधना लाख गुना फलदायक तथा शिव सानिध्य में किया गया पूजन अनन्त गुना फलदायक होता है। पूर्व मुंह करके जप करने पर वशीकरण शक्ति, दक्षिण दिशाभिमुख जप अभिचार शक्ति, पश्चिम दिशाभिमुख जप धन प्रदाता तथा उत्तर दिशाभिमुख जप शांति प्रदाता होता है।
क्या होता है शिवार्चन what is shivarchan?, रुद्राभिषेक शिवाराधन में रुद्राभिषेक और महामृत्युञ्जय बहु प्रचलित पूजन विधी है।
किसी प्रकार की समस्या (विघ्न) निवारण हेतु ये अनुष्ठान किए जाते हैं। रुद्राभिषेक में रुद्राष्टाध्यायी का पाठ होता है, जो शुक्ल ययुर्वेद का अंश है— विशुद्ध वैदिक।
वैदिक अनुष्ठान बहुत महत्त्वपूर्ण है। बहुत शक्तिशाली है। बहुत गहन है, बहुत कठिन भी। इसके लिए सतत अभ्यास की आवश्यकता है। स्वरों का सम्यक् ज्ञान बहुत ही जरुरी है। संगीत-शास्त्र से भी कहीं अधिक स्वर-ज्ञान होना चाहिए। इसका अपना तन्त्र (विधि) है, जिसे कदापि नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता।
शास्त्रों में ग्रहादि क्षेमोपाय व्यवस्था में सूर्य के लिए हरिवंश पाठ-श्रवण, चन्द्रमा के लिए शिवार्चन, मंगल के लिए रुद्राभिषेक, बुध के लिए कन्यादान, गुरु के लिए अमाङ्ग, शुक्र के लिए गोसेवा-पूजन-दानादि, शनि के लिए महामृत्युञ्जय जप, राहु के लिए भुजगदा प्रयोग, केतु के लिए ध्वजगदा प्रयोग सुझाया गया है। इसी भांति सन्तान-प्राप्ति, लक्ष्मी-प्राप्ति, मोक्ष-प्राप्ति आदि हेतु स्वतन्त्र रुप से रुद्राभिषेक प्रयोग भी कहा गया है। रुद्राभिषेक महात्म्य वर्णन में शिवजी कहते हैं कि....
सर्वकर्माणि सन्त्यज्य सुशान्त मनसो यदा।
रुद्राभिषेकं कुर्वन्ति दुःखनाशो भवेद् ध्रुवम्।।
जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशान्त्यै कुशोदकैः।
दध्ना च पशुकामाय श्रियै इक्षुरसेन च ।।
मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा ।
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसां चाभिषेचनात्।।
वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा मृतवत्सा च याऽङ्गना ।
सद्यः पुत्रमवाप्नोति पयसां चाभिषेचनात्।।
श्री रुद्रस्य प्रसादेन बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
भीतो भयात् प्रमुच्येत वन्ध्या पुत्रमवाप्नुयात्।।
मूर्खो वाचामधीशः स्याद् दरिद्रो धनिनां वरः।
मूको वक्ता भवेत् पङ्गुर्गिरिं लङ्घयते द्रुतम्।।
अर्थ - रोगों के नास हेतु कुशोदक से रुद्राभिषेक करे, दही से पशु-प्राप्ति हेतु, लक्ष्मी प्राप्ति हेतु ईक्षुरस से, अथवा शहद और घी से अभिषेक करे।
पुत्र-प्राप्ति हेतु दूध से एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु तीर्थोदक से रुद्राभिषेक का विधान है। कारागार से मुक्ति, अविद्या का नाश, वन्ध्यत्वदोषादि निवारण भी प्रीतिपूर्वक रुद्राभिषेक करने से होता है।
रुद्राभिषेक का उचित समय—
रुद्राभिषेक व शिवार्चन वैसे तो साल में उचित मुहूर्त देखकर कभी भी करवाया जा सकता है लेकिन ज्यादातर भक्त सावन मास में शिवार्चन करवाते हैं और दुखों से छुटकारा पाते हैं।
इसके लिए सबसे पहले शिववास का विचार करना चाहिए। प्रत्येक महीने के दोनों पक्षों की द्वितीया, पंचमी, षष्ठी, नवमी, द्वादशी,त्रयोदशी एवं अमावश्या तिथियां ग्राह्य हैं, तथा प्रतिपदा, तृतीया, चतुर्थी, सप्तमी, अष्टमी, दशमी, एकादशी, चतुर्दशी और पूर्णिमा तिथियां त्याज्य हैं। ग्रहण एवं त्याग के निर्णय का सूत्र है-
तिथिं च द्विगुणीकृत्य वाणैः संयोजयेत्ततः।
सप्तभिश्च हरेद्शेषे शिववासं समुद्दिशेत्।।
ठीक इसी आशय का दूसरा श्लोक है-
तिथिं च द्विगुणी कृत्वा, पुनः पञ्च समन्वितम्।
मुनिभिस्तु हरेदभागं शेषं च शिववासनम् ।।
अर्थात जिस तिथि को कार्य करने का विचार है, उस तिथि को दो से गुणा करके, पांच जोड़ें और सात से भाजित करे। प्राप्त शेषानुसार स्थान की जानकारी होती है। परिणाम वास-स्थान पर ही निर्भर है। अर्थात अनुकूल हो तो कार्य करें, अन्यथा नहीं। शिववास कहां है इसके लिए कहा गया है—
एकेन वासः कैलाशे द्वितीये गौरी सन्निधौ ।
तृतीये वृषभारुढ़ः सभायां च चतुष्टये ।
पंचमे भोजने चैव क्रीड़ायां च रसात्मके ।
श्मशाने सप्तशेषे च शिववासः उदीरितः ।।
पूर्व श्लोक में कही गयी विधि से गणित करने पर यदि एक शेष बचे तो शिववास कैलाश पर जाने, दो शेष बचने पर गौरी सानिध्य में, तीन शेष में वृषभारुढ, चार में सभामध्य, पांच में भोजन करते हुए, छः शेष में क्रीड़ारत और सात अर्थात शून्य शेष रहने पर शिव को श्मशान वासी जानें।.अगले श्लोक में वास का परिणाम कहते हैं—
कैलाशे लभते सौख्यं गौर्या च सुख सम्पदः ।
वृषभेऽभीष्ट सिद्धिः स्यात् सभायां संतापकारिणी ।
भोजने च भवेत् पीड़ा क्रीडायां कष्टमेव च ।
श्मशाने मरणं ज्ञेयं फलमेवं विचारयेत्।।
अर्थात् कैलाश वासी शिव का अनुष्ठान करने से सुख प्राप्ति होती है। गौरी-सानिध्य में रहने पर सुख-सम्पदा की प्राप्ति होती है। वृषारुढ़ शिव की विशेष उपासना से अभीष्ट की सिद्धि होती है। सभासद शिव पूजन से संताप होता है। भोजन करते हुए शिव की आराधना पीड़ादायी है। क्रीड़ारत शिवाराधन भी कष्टकारी है, तथा श्मशानवासी शिवाराधन मरण या मरण तुल्य कष्ट देता है। ध्यातव्य है कि उक्त शिववास नियम-विचार के साथ-साथ सामान्य पंचांग-शुद्धि (भद्रादि दोष वर्जना) भी अवश्य देखना चाहिए।
रुद्राभिषेक का विविध रुप—
रुद्राष्टाध्यायी – जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इसमें मुख्य रुप से आठ अध्याय हैं, साथ ही नौवां अध्याय शान्त्याध्याय का है, और दसवां अध्याय स्वस्ति-प्रार्थना का है। इसके पाठ की कई प्रचलित और मान्य विधियां हैं। सामान्यतया उक्त आठ+दो अध्यायों का पाठ करते हुए वांछित वस्तु से अभिषेक किया जाता है। इस अति संक्षिप्त रीति से किये जाने वाले अभिषेक में भी विधिवत पूजाविधान सहित अभिषेक सम्पन्न करने में कम से कम चार-पांच घंटे तो अवश्य लगेंगे ही। इसके बाद की क्रियायें (विधियां) और भी जटिल हैं।
यथा—एकादशीनीरूद्र, लघुरुद्र, महारुद्र, अतिरुद्र, शतरुद्र, सहस्ररुद्र इत्यादि। सामान्य पाठ से अभिषेक के बाद, दूसरे नम्बर पर प्रचलन में है- एकादशीनीरुद्र, जिसमें पूजाविधान तो सामान्य की तरह ही है। प्रथम अध्याय से अष्टम अध्याय के प्रमुख स्थान तक क्रमशः पाठ और अभिषेक होता है, किन्तु उसके बाद की क्रिया बदल जाती है। पुनः पंचम अध्याय में बार-बार लौट कर आना पड़ता है, जिसका क्रम है- 4, 4, 4, 3, 3, 3, 2, 1, 1, 2, 2 - इस प्रकार पंचम अध्याय का पुनः पुनः आवृत्ति पाठ होता है। इसे नमक-चमक विधि कहते है।
इस एकादशीनीरूद्र की आवृत्ति-संख्या अलग-अलग कार्यों (मनोकामनाओं) हेतु भिन्न-भिन्न है। यथा- तीन, पांच, सात, नौ, ग्यारह, इक्कीश इत्यादि। आगे की अन्य विधियां और भी जटिल हैं, तदनुसार समय-साध्य, श्रम-साध्य, अर्थ-साध्य भी....।
साधक की तरफ से किसी भी तन्त्र, मन्त्र, जप, अनुष्ठान, क्रिया आदि से पूर्व सावधानी पूर्वक निर्णय लिया जाना चाहिए। महामृत्युञ्जय और रुद्राभिषेक को पूरी विधी विधान से किया जाना चाहिए प्रशिक्षित ब्राह्मण ही इसे करवा सकते हैं। हां, निष्काम भाव से या शिवभक्ति, शिवप्रसन्नता, शिवकृपा हेतु करना हो तब तो कोई बात ही नहीं। उसके लिए सिर्फ मुहुर्त का विचार करके काम शुरु किया जा सकता है।
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