मिशनरियों की कार्यकुशलता-भारतीयों की पहचान की समस्या- मार्किट में घुसना
मिशनरियों की कार्यकुशलता-भारतीयों की पहचान की समस्या- मार्किट में घुसना
राजा राम मोहन राय के 10 साल बाद मैकाले की शिक्षा नीति को भारत में लागू किया गया। इस प्रकार भारतीयों में एक सटेटस सिम्बल की तरह अमीर रजवाड़ों व उच्च वर्ग के लोगों भ्रमित किया गया। उनसे ही पैसा दान स्वरूप लिया गया और कान्वैंटों का निर्माण हुआ। मिशनरियों की कार्यकुशलता इतनी थी सारे काम में वे कभी सामने नहीं आती थी। समाज में उनकी छवि सेवा भाव की ही प्रस्तुत की जाती जो आज भी जारी है। वे अपने एजैंडे को लागू करने के लिए भारतीयों के हर वर्ग से समाज सेवक चुनते व उनको आर्थिक मदद करते। इसके लिए में नारिवाद, दलितवाद, समाजिक न्याय, महिलाओं को लिए न्याय आदि समाजिक मुद्दों पर कार्य करते जिसमें उनको भारतीयों का सहयोग मिल जाता। वे ऐसे लोगों को चुनते जिनकी लोग बात सुनते व मानते थे।
भारतीयों में पहचान की समस्या- भारतीय समाज को बांटने के लिए वे हर तरह का जुगाड़ करते। बंगाल के लोगों में अपनी पहचान को लेकर एक समस्या थी कि वे पहले बंगाली हैं या भारतीय। वे अपनी बंगाली पहचान को लेकर बहुत ही अस्पष्ट विचार रखते थे। लार्ड कर्जन ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन किया तो सभी बंगाली इसके विरोध में खड़े हो गए। वे कहने लगे कि एक पक्ष मुस्लिम हुआ तो क्या हुआ हमारी भाषा बंगाली है, रहन सहन बंगाली, खानपान बंगाली तो विभाजन किस बात का। यह विरोध इतना घना था कि अंग्रेजों को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। लेकिन जब 1947 में जब भारत-पाक का बंटवारा हुआ तो यह एक धर्म पर आधारित विभाजन था। उस समय इसके विरोध में कोई बंगाली नहीं खड़ा हुआ।
पंजाब का 60 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान में चला गया लेकिन हिन्दुओं व सिखों ने ऐसा नहीं कहा कि हम भी पंजाबी हैं और वे पाकिस्तानी मुस्लिम भी पंजाबी हैं। वे अपनी पहचान को लेकर पक्के थे कि वे पहले भारतीय हैं और फिर पंजाबी।
अरब देश व समाज सुधारक- जिस समय भारत में तथाकथित समाजिक आंदोलनों की बाड़ आ चुकी थी और थोक के भाव सामाजिक व धार्मिक सुधारक पैदा हो रहे थे। उस समय अरब में ऐसा कोई आंदोलन नहीं था क्योंकि वहां मिशनरियों की पहुंच नहीं थी। भारत में इन आंदोलनों का उद्देश्य तो सही हो सकता था लेकिन ऐजैंडा सही नहीं था। हर समाज को विचलित करके उसमें मिशनरी एजैंडा घुसेड़ना था। जैसे ही कोई खाली जगह मिलती बीच में घुसने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता। अरब देशों में सामाजिक न्याय, नारिवाद, शिया, अहमिदयावाद, शिक्षा, नास्तिकवाद, ईशनिंदा आदि के लिए कोई जगह नहीं थी कोई इसके लिए आवाज भी उठाता तो जेल में डाल दिया जाता और सिर धड़ से अलग हो जाता।
आनंदी गोपाल जोशी, पंडिता रमाबाई- आनंदी गोपाल जोशी को जब अमेरिका में भारत की पहली महिला डाक्टर बनने के लिए भेजा गया तो उसे इसी शर्त पर भेजा गया कि वह ईसाई बन जाए। वह अपने पति के साथ ईसाई बन गई और फिर उसने भारत में आकर हिन्दू नारियों को महिला न्याय के बहाने जोड़ा और लाखों की संख्या में ब्राहम्ण व उच्च वर्ग की महिलाओं को ईसाई बनाया।
पंडिता रमाबाई- पंडिता रमाबाई ईसाई बनने से एक हिन्दू स्त्री थी और हिन्दू धर्म की प्रशंसा में उसने कई धार्मिक ग्रंथों का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद भी किया। वह मेधावी थी और जब ईसाई बनी तो उसे इंग्लैंड भेजा गया और वहां उसने अंग्रेजी में पारंगत होने के बाद हिन्दू धर्म ग्रंथों का बहुत ही नाकारात्म गंदे तरीके से अनुवाद किया। उन्हीं ग्रंथों का ईसाई व वामपंथी नजरिए से अनुवाद किया जिनका वह ईसाई होने से पहले बहुत ही श्रद्दा से अनुवाद कर चुकी थी। कोलकाता आकर उसे एक अमीर महिला बनाया गया और फिर उसने कई कोनवैंटों की स्थापना की। उस समय उसके पास हर सुविधा थी जो किसी महाराजा को ही मिलती थी। इस प्रकार हर उस व्यक्ति को खरीदा गया, पैसा दिया गया और अपना एजैंडा पूरा किया गया। अगले 100 सालों में बंगाल में पैदा होने वाला हर हिन्दू या तो नास्तिक था, या वामपंथी या फिर ईसाई या किसी नए पैदा किए गए हिन्दू सम्प्रदाय का सदस्य था।
मार्किट को हथिया लिया- यह ऐसा ही है जैसे किसी मार्किट में अपने उत्पाद के लिए उपभोक्ताओं को अपनी तरफ कर लिया जाता क्योंकि अब दुकान भी उनकी थी, दुकानदार भी उनके और उपभोक्ता भी उनका ही माल खरीदते थे।
राजा राम मोहन राय के 10 साल बाद मैकाले की शिक्षा नीति को भारत में लागू किया गया। इस प्रकार भारतीयों में एक सटेटस सिम्बल की तरह अमीर रजवाड़ों व उच्च वर्ग के लोगों भ्रमित किया गया। उनसे ही पैसा दान स्वरूप लिया गया और कान्वैंटों का निर्माण हुआ। मिशनरियों की कार्यकुशलता इतनी थी सारे काम में वे कभी सामने नहीं आती थी। समाज में उनकी छवि सेवा भाव की ही प्रस्तुत की जाती जो आज भी जारी है। वे अपने एजैंडे को लागू करने के लिए भारतीयों के हर वर्ग से समाज सेवक चुनते व उनको आर्थिक मदद करते। इसके लिए में नारिवाद, दलितवाद, समाजिक न्याय, महिलाओं को लिए न्याय आदि समाजिक मुद्दों पर कार्य करते जिसमें उनको भारतीयों का सहयोग मिल जाता। वे ऐसे लोगों को चुनते जिनकी लोग बात सुनते व मानते थे।
भारतीयों में पहचान की समस्या- भारतीय समाज को बांटने के लिए वे हर तरह का जुगाड़ करते। बंगाल के लोगों में अपनी पहचान को लेकर एक समस्या थी कि वे पहले बंगाली हैं या भारतीय। वे अपनी बंगाली पहचान को लेकर बहुत ही अस्पष्ट विचार रखते थे। लार्ड कर्जन ने जब 1905 में बंगाल का विभाजन किया तो सभी बंगाली इसके विरोध में खड़े हो गए। वे कहने लगे कि एक पक्ष मुस्लिम हुआ तो क्या हुआ हमारी भाषा बंगाली है, रहन सहन बंगाली, खानपान बंगाली तो विभाजन किस बात का। यह विरोध इतना घना था कि अंग्रेजों को अपना फैसला वापस लेना पड़ा। लेकिन जब 1947 में जब भारत-पाक का बंटवारा हुआ तो यह एक धर्म पर आधारित विभाजन था। उस समय इसके विरोध में कोई बंगाली नहीं खड़ा हुआ।
पंजाब का 60 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान में चला गया लेकिन हिन्दुओं व सिखों ने ऐसा नहीं कहा कि हम भी पंजाबी हैं और वे पाकिस्तानी मुस्लिम भी पंजाबी हैं। वे अपनी पहचान को लेकर पक्के थे कि वे पहले भारतीय हैं और फिर पंजाबी।
अरब देश व समाज सुधारक- जिस समय भारत में तथाकथित समाजिक आंदोलनों की बाड़ आ चुकी थी और थोक के भाव सामाजिक व धार्मिक सुधारक पैदा हो रहे थे। उस समय अरब में ऐसा कोई आंदोलन नहीं था क्योंकि वहां मिशनरियों की पहुंच नहीं थी। भारत में इन आंदोलनों का उद्देश्य तो सही हो सकता था लेकिन ऐजैंडा सही नहीं था। हर समाज को विचलित करके उसमें मिशनरी एजैंडा घुसेड़ना था। जैसे ही कोई खाली जगह मिलती बीच में घुसने का कोई मौका नहीं छोड़ा जाता। अरब देशों में सामाजिक न्याय, नारिवाद, शिया, अहमिदयावाद, शिक्षा, नास्तिकवाद, ईशनिंदा आदि के लिए कोई जगह नहीं थी कोई इसके लिए आवाज भी उठाता तो जेल में डाल दिया जाता और सिर धड़ से अलग हो जाता।
आनंदी गोपाल जोशी, पंडिता रमाबाई- आनंदी गोपाल जोशी को जब अमेरिका में भारत की पहली महिला डाक्टर बनने के लिए भेजा गया तो उसे इसी शर्त पर भेजा गया कि वह ईसाई बन जाए। वह अपने पति के साथ ईसाई बन गई और फिर उसने भारत में आकर हिन्दू नारियों को महिला न्याय के बहाने जोड़ा और लाखों की संख्या में ब्राहम्ण व उच्च वर्ग की महिलाओं को ईसाई बनाया।
पंडिता रमाबाई- पंडिता रमाबाई ईसाई बनने से एक हिन्दू स्त्री थी और हिन्दू धर्म की प्रशंसा में उसने कई धार्मिक ग्रंथों का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद भी किया। वह मेधावी थी और जब ईसाई बनी तो उसे इंग्लैंड भेजा गया और वहां उसने अंग्रेजी में पारंगत होने के बाद हिन्दू धर्म ग्रंथों का बहुत ही नाकारात्म गंदे तरीके से अनुवाद किया। उन्हीं ग्रंथों का ईसाई व वामपंथी नजरिए से अनुवाद किया जिनका वह ईसाई होने से पहले बहुत ही श्रद्दा से अनुवाद कर चुकी थी। कोलकाता आकर उसे एक अमीर महिला बनाया गया और फिर उसने कई कोनवैंटों की स्थापना की। उस समय उसके पास हर सुविधा थी जो किसी महाराजा को ही मिलती थी। इस प्रकार हर उस व्यक्ति को खरीदा गया, पैसा दिया गया और अपना एजैंडा पूरा किया गया। अगले 100 सालों में बंगाल में पैदा होने वाला हर हिन्दू या तो नास्तिक था, या वामपंथी या फिर ईसाई या किसी नए पैदा किए गए हिन्दू सम्प्रदाय का सदस्य था।
मार्किट को हथिया लिया- यह ऐसा ही है जैसे किसी मार्किट में अपने उत्पाद के लिए उपभोक्ताओं को अपनी तरफ कर लिया जाता क्योंकि अब दुकान भी उनकी थी, दुकानदार भी उनके और उपभोक्ता भी उनका ही माल खरीदते थे।
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