विश्वास व अंधविश्वास का मनोविज्ञान क्या है ?
विश्वास व अंधविश्वास का मनोविज्ञान क्या है?
विश्वास व अंधविश्वास का आपस में गहरा संबंध है, विश्वास है किसी दायरे से बाहर रहना और अंधविश्वास किसी दायरे में चले जाना। जो इस दायरे के अंदर हैं वे बाहर वालों को अंदर और जो बाहर हैं वे चाहते हैं कि अंदर वाले बाहर आ जाएं। बस यह कशमकश चलती रहती है। विश्वास व अंधविश्वास दोनों कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और न ही प्रमाण है लेकिन दोनों ही स्वंय को वैज्ञानिक साबित करने का प्रयास करते हैं। एक कहता है कि वह ईेश्वर पर विश्वास करता है और दूसरा कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, दोनों दावा अपने विश्वास को वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करने का दावा पेश करते हैं जो सदियों से करते रहे हैं। हर मानव किसी न किसी विश्वास को लेकर चलता है, यह शिफ्ट भी होता रहता है।
मान लो किसी को नौकर की बहुत जरूरत है वह या तो उसके बारे में उसके मुंह से सुनकर उसे रखता है या उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद रखता है , कई बार उसकी जरूरत इतनी तीव्र होती है कि वह उसे वैसे ही विश्वास पर रख लेता है क्योंकि उसके पास और कोई चारा नहीं होता। बच्चे माता-पिता पर बहुत विश्वास करते हैं लेकिन जैसे ही वे बड़े होते हैं तो वे स्वयं निर्यण लेने लगते हैं। यदि कोई आम व्यक्ति एक बात करता है तो कोई नहीं सुनता लेकिन वही बात बिग बी अमिताभ बच्चन करते हैं तो लोग सुनते हैं। बालीवुड स्टार बिना पैसे लिए कोई बात नहीं बोलते।
यदि कोई प्रचारक हिन्दुओं में अपना विश्वास बनाना चाहता है तो यदि वह शुरु में ही कह दे कि वह वेदों, गाय को नहीं मानता तो चाहे वह कितनी भी अच्छी बातें क्यों न कहने वाला हो लोग उसको पहले स्तर पर ही नकार देंगे इसलिए व विश्वास बनाने के लिए वेदों, गाय की महिमा बताता है या इस विषय को बिल्कुल ही नहीं छेड़ता। विश्वास बढ़ाने के लिए प्रश्न-उत्तर भी एक अच्छा माध्यम है, जैसे जाकिर नायक करता है। मानव की कमजोरी है कि वह सारा जीवन प्रश्न करते नहीं गुजार सकता, उसे कहीं न कहीं किसी विचारधारा के आगे नतमस्त होना पड़ता है चाहे वे सीरीया की आईएस, तालीबानी विचारधारा या जाकिर नायक की या फिर विवेकानंद की, बस यही अंधविश्वास बन जाता है । फिर अपनाई गई विचारधारा के खिलाफ वह कुछ नहीं सुनना चाहता। यह वैसा ही होता है जैसे नया बना ईसाई व मुसलमान करता है। प्रश्न करने वाले वे लोग होते हैं जो किसी विचारधारा से असंतुष्ट होते हैं या फिर जो उनके माइंडसेट में होता है उसी के अनुरूप विचारधारा खोजते हैं। यह वैसा ही है जैसे एक्शन फिल्म देखने के शौकीन जैसे ही एक्शन फिल्म लगती है तो लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं। फिल्म मेकर वही पेश करता है जो लोगों के चेतन व अवचेतन मनों में चल रहा होता है।
विश्वास व अंधविश्वास का आपस में गहरा संबंध है, विश्वास है किसी दायरे से बाहर रहना और अंधविश्वास किसी दायरे में चले जाना। जो इस दायरे के अंदर हैं वे बाहर वालों को अंदर और जो बाहर हैं वे चाहते हैं कि अंदर वाले बाहर आ जाएं। बस यह कशमकश चलती रहती है। विश्वास व अंधविश्वास दोनों कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और न ही प्रमाण है लेकिन दोनों ही स्वंय को वैज्ञानिक साबित करने का प्रयास करते हैं। एक कहता है कि वह ईेश्वर पर विश्वास करता है और दूसरा कहता है कि वह ईश्वर पर विश्वास नहीं करता, दोनों दावा अपने विश्वास को वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित करने का दावा पेश करते हैं जो सदियों से करते रहे हैं। हर मानव किसी न किसी विश्वास को लेकर चलता है, यह शिफ्ट भी होता रहता है।
मान लो किसी को नौकर की बहुत जरूरत है वह या तो उसके बारे में उसके मुंह से सुनकर उसे रखता है या उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करने के बाद रखता है , कई बार उसकी जरूरत इतनी तीव्र होती है कि वह उसे वैसे ही विश्वास पर रख लेता है क्योंकि उसके पास और कोई चारा नहीं होता। बच्चे माता-पिता पर बहुत विश्वास करते हैं लेकिन जैसे ही वे बड़े होते हैं तो वे स्वयं निर्यण लेने लगते हैं। यदि कोई आम व्यक्ति एक बात करता है तो कोई नहीं सुनता लेकिन वही बात बिग बी अमिताभ बच्चन करते हैं तो लोग सुनते हैं। बालीवुड स्टार बिना पैसे लिए कोई बात नहीं बोलते।
यदि कोई प्रचारक हिन्दुओं में अपना विश्वास बनाना चाहता है तो यदि वह शुरु में ही कह दे कि वह वेदों, गाय को नहीं मानता तो चाहे वह कितनी भी अच्छी बातें क्यों न कहने वाला हो लोग उसको पहले स्तर पर ही नकार देंगे इसलिए व विश्वास बनाने के लिए वेदों, गाय की महिमा बताता है या इस विषय को बिल्कुल ही नहीं छेड़ता। विश्वास बढ़ाने के लिए प्रश्न-उत्तर भी एक अच्छा माध्यम है, जैसे जाकिर नायक करता है। मानव की कमजोरी है कि वह सारा जीवन प्रश्न करते नहीं गुजार सकता, उसे कहीं न कहीं किसी विचारधारा के आगे नतमस्त होना पड़ता है चाहे वे सीरीया की आईएस, तालीबानी विचारधारा या जाकिर नायक की या फिर विवेकानंद की, बस यही अंधविश्वास बन जाता है । फिर अपनाई गई विचारधारा के खिलाफ वह कुछ नहीं सुनना चाहता। यह वैसा ही होता है जैसे नया बना ईसाई व मुसलमान करता है। प्रश्न करने वाले वे लोग होते हैं जो किसी विचारधारा से असंतुष्ट होते हैं या फिर जो उनके माइंडसेट में होता है उसी के अनुरूप विचारधारा खोजते हैं। यह वैसा ही है जैसे एक्शन फिल्म देखने के शौकीन जैसे ही एक्शन फिल्म लगती है तो लाइन में लगकर टिकट खरीदते हैं। फिल्म मेकर वही पेश करता है जो लोगों के चेतन व अवचेतन मनों में चल रहा होता है।
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