पश्चिमी विचारधारा को गुलामों पर थोपना और इनकी पहचान को नष्ट करना- पश्चिमी सार्वभौमिकता को चुनौती
पश्चिमी विचारधारा को गुलामों पर थोपना और इनकी पहचान को नष्ट करना- पश्चिमी सार्वभौमिकता को चुनौती
यूपोपीय हमलावरों ने जब अमेरिका, अफ्रीका आदि देशों को गुलाम बनाया तो वे इन देशों के लोगों अंधेरे में रह रहे असभ्य लोग मानते थे। उनकी नजर जो असभ्य होता था उसको ट्राईब कहा जाता था जो कि एक घृणित शब्द था। पश्चिमी सार्वभौमिकता का अर्थ है जिस नजरिए से पश्चिमी लोग अन्य गुलाम देशों को देखते थे, वे उसी नजरिए को सत्य व प्रमाणित मानते थे। वे शासक थे, हमलावर थे और उन्होंने अपने नजरिए को गुलाम देशों के लोगों पर थोपा। वे सोचते थे कि ईश्वर का पुत्र यीशु है, उसकी एक पवित्र किताब है, एक गिरजाघर है और पादरी है जो इनसबको कंट्रोल करता है।
इसी प्रकार वे भारत के बारे में भी इसी नजरिए से विचार करते थे। जैसे इन भारतीय गुलामों के पास ईश्वर तो है लेकिन ईश्वर का कोई पुत्र नहीं है, एक ही किताब भी नहीं है, गिरजाघर की जगह मंदिर हैं , पादरी की जगह पुजारी हैं। लेकिन भारतीय व्यवस्था इनके नजरिए की व्यवस्था से बिल्कुल अलग थी।
वैटिकन की तरह कोई एक केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। वे जो उनके फ्रेम में फिट होता था उसे अपना लेते थे और जो नहीं होता था उसे उस फ्रेम से निकाल देते थे, या उसे उस फ्रेम में फिट करने की कोशिश करते थे। वे गुलाम देशों को कहते थे कि उनका जो भूत था वह उनका (गुलामों का) आज है और जो उनका आज है, वह उनका (गुलामों का ) कल होगा। वे उन्हें सभ्य बनाने के लिए आए हैं। आज भारत के कालेजों में समाजिक शास्त्र पढ़ाया जाता है वह पश्चिमी विचारकों की तरफ से ही थोपा गया है।
इसे पश्चिमी चश्में से परोसा गया है और इसमें भारतीय नजरिए को कोई जगह नहीं दी गई है। हमें पढ़ाया जाता है कि कोलम्बस ने अमेरिका को खोजा था लेकिन जो मूल अमेरिकी वहां हजारों सालों से रह रहे थे क्या उन्होंने अमेरिका को नहीं खोजा था। वास्तव में कोलम्बस ने अमेरिका पर हमला किया था और लाखों निर्दोष मूल अमेरिकियों की हत्या की थी लेकिन कोई भी उसे हत्यारा,लुटेरा नहीं मानता। यही पश्चिमी विचार जो दुनिया पर थोपा गया है कि कोलम्बस ने अमेरिका को खोजा था और वह महान था।
भारतीयों का एक अपना अलग नजरिया है जिसको वे हजारों सालों से संजो कर रखे हुए हैं। वे ईश्वर को विभिन्न रूपों में मानते हैं, स्त्री रूप में भी मानते हैं, प्रकृति को भी ईश्वर का रूप मानते हैं। आत्मा हर जीव में है और ईश्वर कण-कण में व्याप्त है। भारत में सैंकड़ों स्कूल आफ थाट्स हैं, ऐसा ईसाई रिलीजन में नहीं है। भारतीयों पर एक ईश्वर, एक केन्द्रीय सत्ता, एक किताब, एक ईश्वर का पुत्र, जन्म से पापी आदि के विचार थोपने की कोशिश आज भी जारी है। भारतीय धर्म, संस्कृति, भाषा, मेले, पहचान चिन्ह, त्यौहार आदि को खत्म करने की भी साजिश चलाई जा रही है, इसमें वे काफी हद तक सफल भी हो रहे हैं।
जैसे ही कोई हिन्दूओं का त्यौहार आता है, वे इनको समाजिक कुरीती से जोड़ते हैं और बैन करने की मांग करते हैं जैसे होली, दीवाली के बारे में मनघड़ंत बातें फैलाते हैं।
आज कल गांवों में मृत्यु भोज को खत्म करने का षडयंत्र रचा जा रहा है और इसके लिए भारी फंडिंग तथाकथित हिन्दू संगठनों को ही की जा रही है। मृत्यु भोज एक ऐसा काम है जिसमें सारा गांव एक साथ हो जाता है और ये सारे शिकवे लोगों के खत्म हो जाते हैं और इन लोगों की सारी साल की गई नफरत की खेती एकदम से उजड़ जाती है। आज इस प्रथा को खत्म करने की नहीं इसे सांस्कृतिक तौर पर बचाने की है।
यह एक सांस्कृतिक पहचान भी है। सारे गांववासियों को इसमें अपनी तरफ से तन,मन, धन से सहयोग देना होगा क्योंकि यदि ये खत्म हो गया तो जलालियों के हाथ यह व्वसाय भी आ जाएगा। यही प्रथा एक एकता का सूत्र है जिसे किसी भी तरीके से खत्म करने का प्रयास होगा। आज पहाड़ों के लोग पूरी तरह से हलाल का मांस खा रहे हैं और परम्परागत पहाड़ियों का काम नाई, मकैनिक, साज-सज्जा, फोटो ग्राफर आदि का काम छिन चुका है। जिस प्रकान से नामकरण, शादी, जन्मदिन आदि संस्कार खत्म नहीं किए जा सकते वैसे ही अन्य सांस्कृतिक क्रिया क्लापों को सहेजने की जरूरत है।
यूपोपीय हमलावरों ने जब अमेरिका, अफ्रीका आदि देशों को गुलाम बनाया तो वे इन देशों के लोगों अंधेरे में रह रहे असभ्य लोग मानते थे। उनकी नजर जो असभ्य होता था उसको ट्राईब कहा जाता था जो कि एक घृणित शब्द था। पश्चिमी सार्वभौमिकता का अर्थ है जिस नजरिए से पश्चिमी लोग अन्य गुलाम देशों को देखते थे, वे उसी नजरिए को सत्य व प्रमाणित मानते थे। वे शासक थे, हमलावर थे और उन्होंने अपने नजरिए को गुलाम देशों के लोगों पर थोपा। वे सोचते थे कि ईश्वर का पुत्र यीशु है, उसकी एक पवित्र किताब है, एक गिरजाघर है और पादरी है जो इनसबको कंट्रोल करता है।
इसी प्रकार वे भारत के बारे में भी इसी नजरिए से विचार करते थे। जैसे इन भारतीय गुलामों के पास ईश्वर तो है लेकिन ईश्वर का कोई पुत्र नहीं है, एक ही किताब भी नहीं है, गिरजाघर की जगह मंदिर हैं , पादरी की जगह पुजारी हैं। लेकिन भारतीय व्यवस्था इनके नजरिए की व्यवस्था से बिल्कुल अलग थी।
वैटिकन की तरह कोई एक केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। वे जो उनके फ्रेम में फिट होता था उसे अपना लेते थे और जो नहीं होता था उसे उस फ्रेम से निकाल देते थे, या उसे उस फ्रेम में फिट करने की कोशिश करते थे। वे गुलाम देशों को कहते थे कि उनका जो भूत था वह उनका (गुलामों का) आज है और जो उनका आज है, वह उनका (गुलामों का ) कल होगा। वे उन्हें सभ्य बनाने के लिए आए हैं। आज भारत के कालेजों में समाजिक शास्त्र पढ़ाया जाता है वह पश्चिमी विचारकों की तरफ से ही थोपा गया है।
इसे पश्चिमी चश्में से परोसा गया है और इसमें भारतीय नजरिए को कोई जगह नहीं दी गई है। हमें पढ़ाया जाता है कि कोलम्बस ने अमेरिका को खोजा था लेकिन जो मूल अमेरिकी वहां हजारों सालों से रह रहे थे क्या उन्होंने अमेरिका को नहीं खोजा था। वास्तव में कोलम्बस ने अमेरिका पर हमला किया था और लाखों निर्दोष मूल अमेरिकियों की हत्या की थी लेकिन कोई भी उसे हत्यारा,लुटेरा नहीं मानता। यही पश्चिमी विचार जो दुनिया पर थोपा गया है कि कोलम्बस ने अमेरिका को खोजा था और वह महान था।
भारतीयों का एक अपना अलग नजरिया है जिसको वे हजारों सालों से संजो कर रखे हुए हैं। वे ईश्वर को विभिन्न रूपों में मानते हैं, स्त्री रूप में भी मानते हैं, प्रकृति को भी ईश्वर का रूप मानते हैं। आत्मा हर जीव में है और ईश्वर कण-कण में व्याप्त है। भारत में सैंकड़ों स्कूल आफ थाट्स हैं, ऐसा ईसाई रिलीजन में नहीं है। भारतीयों पर एक ईश्वर, एक केन्द्रीय सत्ता, एक किताब, एक ईश्वर का पुत्र, जन्म से पापी आदि के विचार थोपने की कोशिश आज भी जारी है। भारतीय धर्म, संस्कृति, भाषा, मेले, पहचान चिन्ह, त्यौहार आदि को खत्म करने की भी साजिश चलाई जा रही है, इसमें वे काफी हद तक सफल भी हो रहे हैं।
जैसे ही कोई हिन्दूओं का त्यौहार आता है, वे इनको समाजिक कुरीती से जोड़ते हैं और बैन करने की मांग करते हैं जैसे होली, दीवाली के बारे में मनघड़ंत बातें फैलाते हैं।
आज कल गांवों में मृत्यु भोज को खत्म करने का षडयंत्र रचा जा रहा है और इसके लिए भारी फंडिंग तथाकथित हिन्दू संगठनों को ही की जा रही है। मृत्यु भोज एक ऐसा काम है जिसमें सारा गांव एक साथ हो जाता है और ये सारे शिकवे लोगों के खत्म हो जाते हैं और इन लोगों की सारी साल की गई नफरत की खेती एकदम से उजड़ जाती है। आज इस प्रथा को खत्म करने की नहीं इसे सांस्कृतिक तौर पर बचाने की है।
यह एक सांस्कृतिक पहचान भी है। सारे गांववासियों को इसमें अपनी तरफ से तन,मन, धन से सहयोग देना होगा क्योंकि यदि ये खत्म हो गया तो जलालियों के हाथ यह व्वसाय भी आ जाएगा। यही प्रथा एक एकता का सूत्र है जिसे किसी भी तरीके से खत्म करने का प्रयास होगा। आज पहाड़ों के लोग पूरी तरह से हलाल का मांस खा रहे हैं और परम्परागत पहाड़ियों का काम नाई, मकैनिक, साज-सज्जा, फोटो ग्राफर आदि का काम छिन चुका है। जिस प्रकान से नामकरण, शादी, जन्मदिन आदि संस्कार खत्म नहीं किए जा सकते वैसे ही अन्य सांस्कृतिक क्रिया क्लापों को सहेजने की जरूरत है।
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