मैं एक स्वर्ण - मेरी आत्म कथा

मैं एक स्वर्ण - मेरी आत्म कथा
मैं आपको अपनी छोटी सी आत्मकथा के बारे में बता रहा हूं क्योंकि मैं बहुत ही द्रवित व दुखी हूं। मुझे नहीं पता कि आज से हजार साल पहले क्या हुआ था।
मुझे यह भी नहीं पता कि भगवान ने पहले दलित बनाए या स्वर्ण या दलित पहले इस दुनिया में पहले आए या स्वर्ण।क्या दलित सैंकड़ों सालों से दलित ही रहे। मैं स्टेशनों के प्लेटफार्मों पर पड़े गरीब लोगों को देखकर दुखी होता हूं, ठंड, बरसात व गर्मी  में बेघर लोगों बाहर सड़कों के किनारे बैठे लोगों को देखकर मेरा मन दुखी होता है। मेरे पिता जी आज से 60 साल पहले अपने गांव से शहर की तरफ काम की तलाश में भाग आए थे। यह एक ऐसा गांव है कि अभी भी यहां मूलभूत सुविधाएं नहीं पहुंची। इस गांव से सारे लोग पलायन कर चुके हैं। यहां उजाड़ व बिरान पड़े घर अब गिर चुके हैं। अपने चार बच्चों के साथ एक कोठरी में रहना और पिता जी का मजदूरी करना मैंने अपनी आंखों से देखा है। कैसे प्लास्टिक की चप्पल में छेद हो जाते थे और कैसे ठंड में भी उनके शरीर पर दो कपड़े होते थे। मां के पेट में जब हम थे तो उसे पूरी खुराक न मिल पाने के कारण , उसकी आंखों में पड़े गड्ढे देखकर मेरे को रोने का मन करता। कैसे मेरी मां कम खाकर भी हम बच्चों को खाने के लिए देती थी।
जब मैं सरकारी स्कूल में दाखिला लेने के लिए गया तो मेरे द्वारा सामान्य  वर्ग व जाति  का कालम भरने के बाद कैसे सारे अध्यापक हंसे थे वो दिन आज भी मुझे याद है। मेरी हालत को देखकर मुझे कहा गया गया था कि तू यहां क्या करने आ गया है। यहीं बस नहीं हुई जब कक्षा में तथाकथित दलित छात्रों के वजीफा, फीस माफी, मुफ्त वर्दी, मुफ्त किताबें मिलती तो मैं सोचता कि मैं तो इनसे भी गरीब हूं मेरे को क्यों नहीं ये सब मिलता। मैं तो पढ़ने में भी होशियार हूं तो ऐेसा क्यों। ठंड में कई बार पहनने को जूते तक नहीं होते थे। सारे जीवन में शायद ही मुझे कोई सरकारी सहायता मिली हो सिवाय तिरस्कार के।
मैं चाहता था कि मैं पढ़ लिख कर कुछ बन सकूं लेकिन धन के अभाव में मैं आगे की पढ़ाई जारी न रख पाया।
किसी दिहाड़ी करके प्राइवेट तौर पर  किसी तरह बीए तक की पढ़ाई मैने पूरी की। पिता जी व माता जी की प्रेरणा से  मैंने अपना हौंसला नहीं छोड़ा और किसी तरह मैंने बीए तक पढ़ाई पूरी कर ही ली।  कोई काम शुरु करने के लिए धन की जरूरत थी वह न मिला और फिर हुआ दिहाड़ी करने का दौर। कभी किसी को
ट्यूशन दी और कभी कहीं चाय बेची,लाटरी बेची बस ऐसे ही गुजर निकल गया। मेरी आंखों के सामने मेरे से कम अंक लाने वाले मेरे सहयोगी अच्छी नौकरियों में लग गए। मैंने कई बार नौकरियों के बारे में भरा लेकिन निराशा ही हाथ लगी। पता नहीं क्यों हर कदम पर भेदभाव होने के कारण मैं खिन्न सा हो गया था।
यह सब यहीं खत्म नहीं हुआ। आज मैं 50 सालों का हो गया हूं। मेरा बेटा भी कालेज में पढ़ता है और वह भी उसी भेदभाव का शिकार है। मुझे उसकी फीस देने
के लिए अपने रिश्तेदारों से उधार मांगना पड़ता है। मेरे पास कोई पक्की नौकरी नहीं पर फिर भी मैं अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलवाना चाहता हूं।
मेरे लिए इस भेदभाव में जीना असहनीय होता जा रहा रहा है। क्या मेरे जैसे करोड़ों गरीब स्वर्णों के लिए कोई मौका होगा कि वे अपने जीवन में कुछ पा सकें।
एक समस्या को खत्म करने के लिए उससे बड़ी समस्या समाज में पैदा हो जाए क्या यह समझदारी वाली बात होगी।
आज के परिवेश में जब मैं देखता हूं कि संसद में सबसे ज्यादा स्वर्ण सांसदों की भीड़ है जो वोट बैंक के लिए भड़वों की तरह एससीएसटी एक्ट पर अध्यादेश
जारी कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट देती है तो मैं सोचता हूं कि इन सांसदों को क्या इतिहास कभी माफ करेगा। आज स्वर्ण समाज ठगा सा महसूस कर रहा है। क्या हमें हिन्दुस्तान में रहने का कई अधिकार नहीं, क्या हमारे बच्चे समान अधिकार की मांग भी नहीं कर सकते। स्वर्णों को ऐसा लगने लगा है कि वे आज इस भारत में सुरक्षित नहीं हैं। मैं समझता हूं कि आज समय की मांग है कि स्वर्ण समाज को एकजुट होकर अपने लिए संघर्ष करना होगा।
                                                                                                                                                                                         (क्रमश








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