भारतीय धार्मिक परम्पराएं व इब्रहामिक परम्पराओं में क्या अंतर हैं

भारतीय धार्मिक परम्पराएं व इब्रहामिक परम्पराओं में क्या अंतर हैं
भारतीय धार्मिक परम्पराएं वे हैं जो हजारों सालों से भारतवर्ष के जीवन मूल्यों,जीवन शैली व धर्म आदि से प्रत्यक्ष का परोक्ष रूप से जुड़ी हुई हैं।
ये भारतीय जनमानस के जीवन पर असर भी डालती हैं। ये परम्पराएं किसी तरह से कोई कमरे, फ्रेम या किसी जगह तक सीमित नहीं हैं।
हम आपको बहुत ही आसान तरीके से बताएंगे कि इब्रहामिक रिलीजनों के लोगों को का माइंटसेट कैसे है।
कुछ वर्ष पहले मैं अमेरिका में रेलगाड़ी में सफर कर रहा था। यूं ही साथ में बैठी एक महिला से से वार्तालाप शुरू हो गई। उसने पूछा कि आपका धर्म क्या है तो मैंने बताया कि मैं भारतवासी हूं और मेरा धर्म सनातन हिंदू जिसे वैदिक भी कहते हैं, है। इसके बाद उसने अगला प्रश्न किया कि आपकी धाॢमक किताब, ईश्वर का संदेश देने वाला या ईश्वर का पुत्र या संदेशवाहक कौन है। मैंने उत्तर दिया हमारी धार्मिक पुस्तकें वैसे तो 4 वेद हैं लेकिन इसके इलावा हजारों पुस्तकें हैं जिनका हम मनन अनुसरण अपने सम्प्रदाय के अनुसार करते हैं। हमारा कोई एक मैसेंजर नहीं हमारे हजारों संत महापुरुष,देवी-देवता हैं जिनका हम अनुसरण करते हैं। हमारी पूजा पद्धतियां भी अलग-अलग हैं। वह महिला की दिमागी डिक्शनरी में ये बातें थी ही नहीं। वह इन बातों को समझ ही नहीं पाई। उसने जोर देकर कहा कि अरे ये कैसे हो सकता है कि आपका कोई एक पुस्तक , एक विधी या एक संदेशवाक न हो। ये कैसे हो सकता है, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। अब मेरे लिए उस महिला को समझाना बहुत मुश्किल था कि कैसे करोड़ों लोग मेरे धर्म का पालन कर रहे हैं और वे भी बिना किसी रोक-टोक, किसी उच्च संस्था के कंट्रोल व निर्देशों के बिना। बरहाल वह महिला नहीं समझ सकी कि मैं क्या कहना चाहता हूं। लेकिन दूसरी तरफ किसी भी भारतीय को यह समझाना नहीं पड़ता। मुझे उसे समझाना पड़ा कि हमारा धर्म किसी ऐतिहासिक घटना से नहीं जुड़ा हुआ। जैसे कि यदि यीशू न होते तो बाईबल भी न होता, ऐसे में पूरी ईसाइयत का विचार ही धराशाही हो जाता। जैसे ईसाइयत के लिए गॉड,उसका पुत्र व बाईबल का होना जरूरी है वैसे मेरे धर्म में जरूरी नहीं है। जिन धार्मिक वेदों का मैं अध्ययन करता हूं, जिन महापुरुषों व देवी-देवताओं को मैं मानता हूं वे न भी होते तो मेरा धर्म होता। मेरा धर्म में किसी तीसरे या दूसरे की मध्यस्तथा की जरूरत नहीं है। यह सत, चित्त, आनंद व स्वधर्म पर आधारित है। मैं योग, भक्ती, भजन आदि करने से भी अपने धर्म से जुड़ सकता हूं। अब महिला जो समझ रही थी वह पहली बार थोड़े अपने माइंडसेट से बाहर आकर पहली बार सुन रही थी। लेकिन फिर भी वह यह मानने को तैयार नहीं थी कि बिना किसी ऐतिहासिक घटना पर निर्भर रहने से एक विचार या धर्म कैसे पैदा हो सकता है और कैसे हजारों सालों तक अनवरत जीवित रह सकता है। यह उसी तरह था कि जिस तरह सारी उम्र पिज्जा खाने वाले को कोई बताए हमारे यहां मक्की की रोटी होती है जिसमें कुछ नहीं डलता और वह एक अलग से बनाए गए हरे घास के साथ खाई जाती है। पश्मिची देशों में या इब्राहिमक देशों में बहुसंख्यक लोग इसी महिला की तरह ही सोचते हैं। अब अरबी शासकों व अंगे्रेजों के आने के बाद इब्राहमिक विचारधारों से प्रेरित कई सम्प्रदाय बने हैं। ऐसे केवल भारत में नहीं हुआ बल्कि जहां-जहां ये शासक गए वहां के लोग या तो 100 प्रतिशत इब्राहमिक हो गए, या 25 या 50 या 75 प्रतिशत इब्रहामिस वेशभूषा, कल्चर,भाषा आदि को अपना कर हो गए। मूल सभ्यता या संस्कृति से वही लोग जुड़े रहे जहां ये लोग पहुंच नहीं पाए।
दूसरी तरफ भारतीय धार्मिक परम्पराएं किसी पर जबरन थोपी नहीं जाती,न ही इनमें कही धर्म परिवर्तन की बात कही जाती है। अपनी इच्छा के अनुसार मानव किसी का भी चुनाव कर सकता है, उसे किसी एक मैसेंजर,पुत्र या ईश्वर को मानने के लिए बाध्य नहीं किया जाता,वह अपनी इच्छा के अनुसार किसी पूजा पद्धति को भी अपना सकता है। वह ईश्वर को मान भी सकता है या फिर नास्तिक भी हो सकता है। वह ईश्वर के
निराकार, साकार,शून्य, द्धैत, अद्धैत, आगम आदि स्वरूपों को मान सकता है। लेकिन इब्राहमिक रीलीजन में ऐसी स्वतंत्रता नहीं है। www.bhrigupandit.com


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