किसी भी विचारधारा से सहमति, असहमति क्या स्वाभाविक है?

किसी भी विचारधारा से सहमति, असहमति क्या स्वाभाविक है?
मेरे एक परम मित्र मुझसे इस बात से नाराज हो गए कि मैं उनकी विचारधारा या मत से सहमत नहीं हूं। वे कहते कि ईश्वर एक है और वह निराकार है। इसके लिए वह धर्म ग्रंथों का अपने नजरिए से  अनुवाद करके अनेकों उदाहरण देते हैं और मेरे पर दबाव डालते हैं कि मैं भी इसे
मानू क्योंकि उनके अनुसार यही परम सत्य है। मैं उनसे असहमत होता हूं तो वह क्रोधित हो जाते हैं और कई दिनों तक नाराज रहते हैं और
मुझे बुलाते तक नहीं। वह मेरी असहमति का आदर नहीं करते। वह मेरे क्या विचार हैं सुनने को भी तैयार नहीं हैं। विचारों का खुले दिल से
आदान-प्रदान होना चाहिए। जिन बातों पर असहमति हो उन्हें एक तरफ कर देना चाहिए और जिन पर सहमति है उनपर एकसारता से चर्चा
करनी चाहिए। इसमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आप अपने विचार तो पेश करें लेकिन ये कोशिश न हो कि दूसरे के विश्वास को ठेस पहुंचे।
मसलन मैं कहता हूं कि ईश्वर नहीं है या साकार है तो दूसरे पक्ष को चाहिए वह इसका आदर करे मेरे विश्वास को गलत या झूठ बताने का प्रयास न करे। इस विषय पर डिबेट होती है तो इसमें भी ध्यान रखा जाए।
मुझे याद है कि एक बार विदेश में मुझे धर्म के बारे में अपना पक्ष रखना था वह भी तब जब सुनने वाले मेरी विचारधारा से असहमति रखने वाले थे। उन्होंने ध्यानपूर्वक मुझे सुना और असहमति व्यक्त करते प्रश्न भी किए लेकिन ऐसा भारत में सम्भव नहीं है यहां लोग दिमागी तौर पर
इतने पहले से प्रोग्राम्ड हैं तुरंत विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं। एक डेरे पर जाने वाला भक्त अपने गुरु या प्रमुख के की विचारधारा को विपरीत कुछ भी नहीं सुनना चाहता। वह अपना पक्ष तो प्रस्तुत करता है लेकिन जब दूसरा अपना पक्ष प्रस्तुत करता है तो वह फिर अपने रिकार्ड
की तरह गुणगान शुरु कर देता है।
किसी भी धार्मिक संत या महापुरुष से जरूरी नहीं कि हम हर प्वाइंटों पर सहमत हों, ऐसा ही किसी ग्रंथ पर हो सकता है। कुछ बातों पर हम
अपने समय अनुसार,सुविधा के अनुसार विचार कर सकते हैं। सभ्य समाज का निर्माण तभी हो सकता है जब हम सहमति वाले प्वाइंटों पर चर्चा करें। 













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