मंदिर व संत महापुरुष हिन्दुओं की एकता में असफल साबित हुए
मंदिर व संत महापुरुष हिन्दुओं की एकता में असफल साबित हुए
मंदिरों का प्रबंध कमेटियों के अधीन होता है जिसमें हिन्दू पदाधिकारी होते हैं। मंदिरों के कर्ताधत्र्ता
होते हैं। यही पुजारियों व कर्मचारियों की नियुक्तियां करते हैं। चढ़े हुए दान इत्यादि का का लेखा-जोखा भी रखते हैं। लेकिन ये लोग धर्म प्रचार कैसे करना है, कैसे लोगों को अपने साथ जोडऩा है, कैसे लोगों के प्रश्नों का उत्तर देना है आदि के बारे में प्रशिक्षित नहीं होते। ज्यादातर सदस्यों को तो संस्कृत या धर्म ग्रंथों का ज्ञान भी नहीं होता। पुजारी भी इस तरह प्रशिक्षित नहीं होते कि धर्म के बारे में लोगों को उचित ज्ञान दे सकें। वे सिर्फ प्रशाद व धार्मिक क्रिया क्लापों तक ही सीमित रहते हैं। विभिन्न मंदिरों के पदाधिकारियों का आपस में तालमेल नहीं होता। अलग-अलग राजनितिक पार्टियों से जुड़े होने के कारण ये एक दूसरे को सहयोग भी नहीं देते। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि उनके क्षेत्र में कितने हिन्दू रह गए हैं। दूसरी तरफ चर्च आदि के कार्य धर्म प्रचार एक
कारपोरेट कम्पनी की तरह होता है। वहां प्रचारकों को वेतन दिया जाता है। कैसे घर-घर जाकर प्रचार करना है और कैसे दिए गए टार्गेटों को पूरा करना होता है। उन्हें क्षेत्र दिया जाता है और वे वहां प्रचार करते हैं। इस लक्ष्य में वे कामयाब भी हो रहे हैं क्योंकि कम्पनी की तरह उन्हें ट्रेंड किया जाता है। इस मुकाबले में मंदिर पदाधिकारी पूरी तरह से अंजान बने रहते हैं और उन्हें नहीं पता कि एक व्यक्ति को कैसे अपने धर्म में लाना है। भक्त भी इससे अंजान बने रहते हैं उन्हें नहीं पता होता कि उनके दिए दान से धर्म प्रचार के लिए क्या काम हो रहा है।
www.bhrigupandit.comदूसरी तरफ संत महापुरुष सिर्फ अपने चेलों व अपने संस्थान तक ही सीमित रहते हैं। अपने चेलों
को भी वे अपने तक ही सीमित रखते हैं। इनमें घमंड इतना होता है कि ये दूसरे सम्प्रदाय के संतों
के साथ सम्मेलनों में भाग भी नहीं लेते। इस प्रकार इन संतों पर अटैक करना आसान होता है।
जब इनपर कोई आफत आती है तो बाकी के संत छिपे रहते हैं और खुलकर सामने भी नहीं आते।
ये अपने चेलों को दूसरे संतों व सम्प्रदाय से कटा कर रखते हैं इसलिए अन्य हिन्दू इनके पक्ष में
नहीं आते। और तो और ये लोग एक दूसरे संतों का मजाक भी उड़ाते हैं। मंदिरों के पदाधिकारियों
व संतों को यह पता नहीं होता कि सभी हिन्दुओं में एकता कैसे हो।
मंदिरों का प्रबंध कमेटियों के अधीन होता है जिसमें हिन्दू पदाधिकारी होते हैं। मंदिरों के कर्ताधत्र्ता
होते हैं। यही पुजारियों व कर्मचारियों की नियुक्तियां करते हैं। चढ़े हुए दान इत्यादि का का लेखा-जोखा भी रखते हैं। लेकिन ये लोग धर्म प्रचार कैसे करना है, कैसे लोगों को अपने साथ जोडऩा है, कैसे लोगों के प्रश्नों का उत्तर देना है आदि के बारे में प्रशिक्षित नहीं होते। ज्यादातर सदस्यों को तो संस्कृत या धर्म ग्रंथों का ज्ञान भी नहीं होता। पुजारी भी इस तरह प्रशिक्षित नहीं होते कि धर्म के बारे में लोगों को उचित ज्ञान दे सकें। वे सिर्फ प्रशाद व धार्मिक क्रिया क्लापों तक ही सीमित रहते हैं। विभिन्न मंदिरों के पदाधिकारियों का आपस में तालमेल नहीं होता। अलग-अलग राजनितिक पार्टियों से जुड़े होने के कारण ये एक दूसरे को सहयोग भी नहीं देते। उन्हें यह भी ज्ञान नहीं होता कि उनके क्षेत्र में कितने हिन्दू रह गए हैं। दूसरी तरफ चर्च आदि के कार्य धर्म प्रचार एक
कारपोरेट कम्पनी की तरह होता है। वहां प्रचारकों को वेतन दिया जाता है। कैसे घर-घर जाकर प्रचार करना है और कैसे दिए गए टार्गेटों को पूरा करना होता है। उन्हें क्षेत्र दिया जाता है और वे वहां प्रचार करते हैं। इस लक्ष्य में वे कामयाब भी हो रहे हैं क्योंकि कम्पनी की तरह उन्हें ट्रेंड किया जाता है। इस मुकाबले में मंदिर पदाधिकारी पूरी तरह से अंजान बने रहते हैं और उन्हें नहीं पता कि एक व्यक्ति को कैसे अपने धर्म में लाना है। भक्त भी इससे अंजान बने रहते हैं उन्हें नहीं पता होता कि उनके दिए दान से धर्म प्रचार के लिए क्या काम हो रहा है।
www.bhrigupandit.comदूसरी तरफ संत महापुरुष सिर्फ अपने चेलों व अपने संस्थान तक ही सीमित रहते हैं। अपने चेलों
को भी वे अपने तक ही सीमित रखते हैं। इनमें घमंड इतना होता है कि ये दूसरे सम्प्रदाय के संतों
के साथ सम्मेलनों में भाग भी नहीं लेते। इस प्रकार इन संतों पर अटैक करना आसान होता है।
जब इनपर कोई आफत आती है तो बाकी के संत छिपे रहते हैं और खुलकर सामने भी नहीं आते।
ये अपने चेलों को दूसरे संतों व सम्प्रदाय से कटा कर रखते हैं इसलिए अन्य हिन्दू इनके पक्ष में
नहीं आते। और तो और ये लोग एक दूसरे संतों का मजाक भी उड़ाते हैं। मंदिरों के पदाधिकारियों
व संतों को यह पता नहीं होता कि सभी हिन्दुओं में एकता कैसे हो।
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