ईश्वर क्या है और इसका स्वरूप क्या है?

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ईश्वर क्या है और  इसका स्वरूप क्या है?
पूरे विश्व में इस बारे में हर कोई आज भी यह प्रश्न पूछता है ईश्वर क्या है और इसका स्वरूप क्या है? कोई कहता है कि ईश्वर निराकार है, कोई साकार रूप को मानता है। कोई नास्तिक है जो ईश्वर के अस्तित्व को नकारता है। कोई यह दावा करता है कि वह एक है और कहीं दूर किसी सातवें आसमान में रहता है। हर कोई अपनी-अपनी बुद्धि व धर्म ग्रंथों का हवाला देकर या अपने फ्रेम में  उसे ढाल कर इसकी व्याख्या करता है। ईश्वर है या नहीं ये हमेशा विवाद का विषय भी बनता रहा है जो कि नहीं होना ेचाहिए। एक दूसरे के विश्वास आदमी नकारता है और उसका पुरजोर विरोध भी करता है जो उससे सहमत नहीं होता तो उससे दूरियां भी बना लेता है। ईश्वर को हम किसी एक परिभाषा में नहीं बांध सक ते। क्या ईश्वर के  पास कोई फार्मूला है कि उसने एक ही रहना है अनेक नहीं होना,उसने निराकार ही रहना है या मूर्तिमान नहीं होना या व शून्य नहीं हो सकता या सबकुछ भी नहीं हो सकता। क्या उसे मानव की सोच के अनुसार ही होना होगा? वह कहता है कि निराकार है तो वैसा ही हो। मानव गणना करता है, मापता-तोलता है,गर्मी सर्दी महसूस करता है, उसे दुख भी होता है तो सुख भी। वह इसी अवधारणाओं को लेकर किसी  चीज का मूल्यांकण करता है। यदि इब्रहामिक रिलीजन के मानने वालों को पूछेंगे तो वे कहेंगे कि जो उनके धर्म ग्रंथ कहते हैं वही सत्य है और बाकी सब को वह रिजैक्ट कर देते हैं। कुछ लोग एक फ्रेम वर्क बना लेते हैं  उसके अनुसार जो उनको फिट लगता है वह उसे स्वीकार कर लेते हैं जो नहीं उसे रिजैक्ट कर देते हैं। लेकिन भारतीय धार्मिक परम्पराएं किसी बंद कमरे की तरह नहीं हैं कि
इसमें क्या-क्या रखना है और क्या-क्या रिजैक्ट कर देना है। यह एक ओपन आर्कीटेक्ट है अपनी सुविधा व अनुभूति के अनुसार हर कोई कार्य करने को स्वतंत्र है। उदाहरण के तौर पर कुछ लोग सिर्फ वेदों को व कुछ अन्य चीजों को ही मानते हैं वे अवतारवाद, उपनिशदों, पुराणों आदि को इस फ्रेम में शामिल नहीं करते। कुछ लोग कृष्ण को सर्वोपरि मानते हैं किसी अन्य देवी-देवताओं को इसमें शामिल नहीं करते और कुछ लोग ईश्वर की सत्ता को ही रिजैक्ट कर देते हैं। वे इस फ्रेम में शामिल धारणाओं के हिसाब से ही चलते हैं। कम्यूनिस्ट, इब्राहमिक व नास्तिक लोग इन धर्म ग्रंथों का सिर्फ अपनी विचारधाराओं के अनुसार ही विवेचन करते हैं और साथ ही साथ दूसरे के धर्म,विचार व सांस्कृतिक पहचान को भी नष्ट करने का प्रयास करते रहते हैं।
अब जाकिर नायक कुरान को अंतिम सत्य मानते हुए वेदों को अपने फ्रेम में फिट करके व्याख्या करता है और एक श£ोक यहां से और वहां से ुउठाकर अपने कुटिल उद्देश्य की पूर्ति करता है।
अंत में मानवीय दृष्टिकोण से हम देखें तो हम ईश्वर का स्वरूप निर्धारण करने में स्वतंत्र हैं और अपने विश्वास अनुसार उसकी अराधना भी कर सकते हैं। हमे एक दूसरे के ईश्वर संबंधी विश्वास को पारस्परिक सम्मान देना चाहिए। चाहे हम उससे सहमत हों या न। मानव यदि एक-दूसरे की  आस्था को परस्पर सम्मान देना शुरू कर दे तो धर्म व ईश्वर संबंधी पैदा होने वाली सभी समस्याएं दूर हो जाएंगी।

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